आदतन
जब पुरुष गुट बनाकर खेलते हैं पत्ते
स्त्रियाँ धूप में फैला देती हैं पापड बड़ियाँ और अपनी सर्द हड्डियाँ
जमा कर लेती हैं धूप अँधेरे में गुम आत्माओं के लिए
बुन लेती हैं स्वेटर
धुन लेती हैं रजाइयां
ठिठुरती संवेदनाओ के लिए
मर्द जब तनाव भगाने को सुलगाता है बीडी
भरता है चिलम
औरतें बन जाती हैं खेल के मैदान की गोदी
बच्चे धमाचौकड़ी लगा चुकते हैं जब
पुचकार कर उन्हें
बच्चे धमाचौकड़ी लगा चुकते हैं जब
पुचकार कर उन्हें
करवा देती हैं होम वर्क
संवार देती हैं बाल
गूंथ देती हैं चोटियाँआदमी ऊंघते हैं जब थक कर
स्त्रियाँ सम्हाल लेती हैं उनकी दुकाने
पुरुषों ने फेकने को निकली थी जो नकारा चीज़े
बेच देती हैं वे उन अपने जैसी लगने वाली आत्मीय चीजों को
कुशलता से समझा देती हैं उनकी उपयोगिता ग्राहकों को
पुरुषों ने फेकने को निकली थी जो नकारा चीज़े
बेच देती हैं वे उन अपने जैसी लगने वाली आत्मीय चीजों को
कुशलता से समझा देती हैं उनकी उपयोगिता ग्राहकों को
आदमी के घर लौटने से पहले
बुहार कर चमका देती हैं पृथ्वी
फूंक मार कर उड़ा देती हैं धूल दूर अन्तरिक्ष में
फूंक मार कर उड़ा देती हैं धूल दूर अन्तरिक्ष में
ठिकाने लगा देती हैं बेतरतीबी से बिखरी चीज़ें
अंधेरों को कर देती हैं कोठरियों में बंद
अंधेरों को कर देती हैं कोठरियों में बंद
परोस देती हैं गर्म खाना
थका मांदा पुरुष पटियाला की खुमारी में सो जाता है जब
बचे खुचे समय में सुलगते सपनो को भर देती हैं इस्त्री में
और पुरुषों की जिंदगी में बिछी सलवटों को
मुलायम चमकदार बना देती हैं..
सोते सोते
सुबह के लिए सपनो में सब्जी काटती रहती हैं जब उनकी उंगलियाँ
आँखे जुदा होकर देह से
समानांतर जीवन जी आती हैं
पृथ्वी जैसे लगने वाले किसी और ग्रह पर
मुलायम चमकदार बना देती हैं..
सोते सोते
सुबह के लिए सपनो में सब्जी काटती रहती हैं जब उनकी उंगलियाँ
आँखे जुदा होकर देह से
समानांतर जीवन जी आती हैं
पृथ्वी जैसे लगने वाले किसी और ग्रह पर
- लीना मल्होत्रा
30 comments:
सचमुच ये सब कितना सच है .... बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता
लाइक !-:)
स्त्री पुरुष की बड़ी सुन्दर तुलना प्रस्तुत हुई है लीना जी की इस सुन्दर कविता में ! उन्हें बधाई !
थका मांदा पुरुष पटियाला की खुमारी में
सो जाता है जब
बचे खुचे समय में
सुलगते सपनो को भर देती हैं इस्त्री में
और पुरुषों की जिंदगी में
बिछी सलवटों को
मुलायम चमकदार बना देती हैं...
सच है
स्त्री मन तब तक करता है
समझौता और संघर्ष
जब तलक
बची रहती है एक
किरण आशा की ..आभार ...
आदमी के घर लौटने से पहले
बुहार कर चमका देती हैं पृथ्वी
फूंक मार कर उड़ा देती हैं धूल दूर अन्तरिक्ष में
ठिकाने लगा देती हैं बेतरतीबी से बिखरी चीज़ें
अंधेरों को कर देती हैं कोठरियों में बंद
परोस देती हैं गर्म खाना...खूबसूरत जज़बात का गहरा समन्दर....
** nareshvidhyarthi.blogspot.com
khub! bahut khub!.....bahut hi achi rachna hai,aur aap ka blog bhi bahut pyara sa hai...
बहुत सुन्दर !!!
बहुत सुन्दर !!!
shram jeevee stree-purush ke karya-vyaparon evam aatmeeya sambandhon par rachee gayee aik sarthak bimbatmak kavita.Badhai.
Meethesh Nirmohi,Jodhpur[rajasthan].
पृथ्वी जैसे लगने वाले किसी और ग्रह पर - निस्संदेह लीनाजी की कविता!! स्त्री पक्ष को प्रखरता से सामने लाती और पुरुष के सामंतवादी रूप को दिखाती कविता! बहुत शालीनता से ऐसे पुरुषों को चोट पहुंचाती सुन्दर रचना के लिए बधाई!
एक घनघोर मर्दवादी समय में घर-गृहस्थी से लेकर मर्द की दुकानों तक को संभालने वाली स्त्री का जीवन कितनी किस्म की आत्मीय और अनिवार्य व्यस्तताओं में बीतता है, इसे बिना किसी लागलपेट के अदृश्य संवेदनाओं के तार में पिरोते हुए लीना इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि उन स्त्रियों के प्रति पाठक का मन नतमस्तक हो जाता है। वे इसी पृथ्वी पर रहती हैं, लेकिन हमारे निर्मम समय ने उनका जीवन ऐसा बना दिया है कि उन्हें नींद में ही किसी अन्य ग्रह पर अपने हिस्से का जीवन जीना पड़ता है। बहुत ही मार्मिक है इस कविता से गुजरना। बधाई लीना जी।
amazing poem...ek seedhi aur sacchi kavita .. badhayi ho ..
meri kavita - phool bartish par aapka swagat hai ...--
http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
vijay
Aap subject bhi naya hai, aur shabdon ka chayan bhi. bahut achha lagaa, padh kar. Streeyon ki is life style ke baare me sab jaante hain, lekin kabhi charchaa nhn karte. Bahut 2 badhai,
पुरुष वर्चस्व की बेला में स्त्री संवेदना की ऐसी फुलवारियां बेहद सुकून बख्श हैं.आपके लहजे की आक्रामकता ख़ूबसूरती के साथ चुभन देती है. शहरोज़
आदमी के घर लौटने से पहले
बुहार कर चमका देती हैं पृथ्वी
फूंक मार कर उड़ा देती हैं धूल दूर अन्तरिक्ष में
ठिकाने लगा देती हैं बेतरतीबी से बिखरी चीज़ें
अंधेरों को कर देती हैं कोठरियों में बंद
परोस देती हैं गर्म खाना...बधाई लीना....बहुत सुन्दर कविता !
आपकी अच्छी कविताओं की कड़ी में एक और कविता.
स्त्री -पुरुष के लिए अनेकार्थकता का बेचैन करने वाला चित्रण.
औरत की नियति, व्यथा और जीवन का सम्पूर्ण चिंत्रण..
बढ़िया!
सघन अनुभूति की कविता है..यह सघनता उस द्वन्द में आकार लेती है जो सहानुभूति से प्रशंसा तक की यात्रा के संश्लेषण और पुनः बरास्ते उसके निषेध उसे एक की और सब की स्वानुभूति में रूपांतरित करता चलता है..ऐसी विकट स्थितियां, जब औरतों को बेच देना पड़ता है 'उन अपने जैसी लगने वाली आत्मीय चीजों को और पूरी 'कुशलता से समझाना पड़ता हैं उनकी उपयोगिता ग्राहकों को', ही उस विराट स्वप्न को जन्म दे सकती हैं जिसमे 'आँखे जुदा होकर देह से' या देह जुदा होकर दिक्-काल से समानांतर जीवन जी आती है'..जाहिर है कि पृथ्वी जैसा लगने वाला कोई और ग्रह मात्र अवचेतन की निर्बाध उड़ान भर नहीं है और न ही किसी अधिभौतिक संसार में पलायन..वह एक बस्तुगत यथार्थ है, एक कवि सत्य भी और जादुई भी..
purush sattatmak samaj me stri ke bina purush ki satta adhuri he. wah ghar hi nahi bahar k kam me hath bantakar purush ka sahyog karti he "striyan dhoop me fela deti hen ...." panktiyan achchhi lagin
'God takes away the minds of poets,and uses them as his ministers' its very true,sister really you are working like a minister in this poem,very progressive and existentialist attitude.-Dr.Satanyder Nanda 'Aas'
satindernanda2yahoo.com
'God takes away the minds of poets,and uses them as his ministers.'Its very true sister,very progressive and existentialist attitude,fine poem.
Dr.SatinderParkash Nanda 'Aas'
bright3stars@gmail.com
यही स्त्रीत्व का असली सौंदर्य है, जो किस तरह रुखी कठोर दुनिया को भी खूबसूरत बना देती है. लीना जी ने स्त्री को उम्मीद की नोक पर हीरे की कनी स रख दिया. जो अपने चारों ओर के कांच को काटने की सामर्थ्य रखती है और पुरुष फिर भी उससे अजनबी ही रह जाता है.
bahut bahut sadhuvad!!
bas jaise aankhon ke samne sab sakar ho uthaa!!!
♥
आदरणीया लीना मल्होत्रा जी
सस्नेहाभिवादन !
# आभारी है पूरा पुरुष समाज आप स्त्रियों का !
आपके दम से हम हैं अभी तक… !! :)
गंभीरता से कहूं तो इस श्रेष्ठ रचना की प्रतिक्रिया के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं … सच !
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आपकी काव्य रचना जीतनी अर्थ परख और सरल है उतनी ही शब्दों में समुद्र सी गहराई है | जो आम मानस के दिलोदिमाग पर एक अमित छाप छोडती है.. आपका काव्य रचना संसार जरुर साहित्य के क्षेत्र नए आयाम तय करेगा | ये हमारी दुआ है |
बहुत सार्थक कविता.. शब्द नहीं हैं
कविता में गाम्भीर्य है परन्तु तब भी आराम से वो संवेदना के स्तर तक पहुंचती है
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