Friday 9 December 2011

kavi ke saath

Wednesday 23 November 2011

मैं अज्ञात निर्विकार अकेलापन


तुम  तमाम कोशिशें कर लो

प्यार की टोकरियाँ उपहार में दे दो
ताकि सुगंधों में खो जाऊं
गठबंधन कर दो जिनकी रक्षा में  चुक जाऊं
परिवारों की जलती भट्ठी में झोंक दो
सुकोमल बच्चे पैदा करो  जिनकी निर्द्वंद्व इच्छाएं  जीवन को  नोच डाले
पराजित करो मुझे
ताकि अपमानित हो
बार  बार ढूंढूं  कन्धा  रोने के लिए
उपलब्धियों के टापू बसा दो
ताकि भीड़ की तृष्णा इन  टापूओं पर काट काट कर रोपती रहे मुझे

लाद दो जिम्मेदारियां
नंगी तलवारों से लड़ने की
वक्त से महरूम कर दो
ताकि सोच भी न पाऊँ मैं

लेकिन मैं अज्ञात निर्विकार अकेलापन
बचा  रहूँगा

निर्लिप्त इन सरोकारों से

अपनी ही मिटटी और धूप से होता बड़ा
पलूंगा भीतर

साथ चलूँगा जैसे चांदनी रात में चलता है चाँद
विस्तृत तारों भरा आसमान

मर जाऊंगा चुपचाप अपनी एकनिष्ठा से तुम्हारी देह के लुप्त होने  के बाद
मुझे रोने वाला कोई नही चाहिए

-लीना मल्होत्रा 

Saturday 15 October 2011

आदतें


आदतन 
जब पुरुष गुट बनाकर खेलते हैं पत्ते 
स्त्रियाँ धूप में फैला देती हैं पापड बड़ियाँ और अपनी सर्द हड्डियाँ  
जमा  कर लेती हैं धूप अँधेरे में गुम आत्माओं के लिए

 बुन लेती हैं स्वेटर
 धुन लेती हैं रजाइयां
ठिठुरती संवेदनाओ के लिए

मर्द जब तनाव भगाने को सुलगाता है बीडी 
भरता है चिलम 
औरतें  बन जाती हैं खेल के  मैदान की गोदी
बच्चे धमाचौकड़ी लगा चुकते हैं जब
पुचकार कर उन्हें 
करवा देती हैं होम वर्क
 संवार  देती हैं बाल
 गूंथ देती हैं चोटियाँ

आदमी ऊंघते हैं जब थक कर 
स्त्रियाँ सम्हाल लेती हैं उनकी दुकाने
पुरुषों ने फेकने को निकली थी जो नकारा चीज़े
बेच देती हैं वे उन अपने जैसी लगने वाली आत्मीय चीजों को
कुशलता से समझा देती हैं उनकी  उपयोगिता ग्राहकों को    

आदमी के घर लौटने से पहले 
बुहार कर चमका  देती हैं पृथ्वी
फूंक मार कर उड़ा देती हैं धूल दूर अन्तरिक्ष में 
ठिकाने लगा देती हैं बेतरतीबी से बिखरी चीज़ें
अंधेरों को कर देती हैं  कोठरियों में बंद
परोस देती हैं गर्म खाना 

थका मांदा  पुरुष पटियाला की खुमारी में सो जाता है जब 
बचे खुचे समय में सुलगते सपनो को भर देती हैं इस्त्री में 
और पुरुषों की जिंदगी में बिछी सलवटों को
मुलायम चमकदार बना देती हैं..
सोते सोते
सुबह के लिए सपनो में सब्जी काटती रहती हैं जब उनकी उंगलियाँ
आँखे जुदा होकर देह से
समानांतर जीवन जी आती हैं
पृथ्वी जैसे लगने वाले किसी और ग्रह पर

- लीना मल्होत्रा 

Tuesday 6 September 2011

ओ बहुरूपिये पुरुष !

पति 
एक दिन 
तुम्हारा ही अनुगमन करते हुए
मैं उन घटाटोप अँधेरे रास्तों  पर भटक गई
निष्ठा के गहरे गह्वर  में छिपे आकर्षण के सांप ने मुझे भी डस लिया था 
उसके  विष का गुणधर्म  वैसा ही था 
जो पति पत्नी के बीच विरक्ति पैदा कर दे
इतनी 
कि दोनों एक दूसरे के मरने की कामना करने लगें.
तभी जान पाई मैं  कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का 
और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है
और तुम क्यों और कहाँ चले जाते हो बार बार मुझे छोड़कर ..

मैं तुम्हारे बच्चो की माँ थी 
कुल बढ़ाने वाली बेल
और अर्धांगिनी 
तुम लौट आये भीगे नैनों से हाथ जोड़ खड़े रहे द्वार
तुम जानते थे तुम्हारा लौटना मेरे लिए वरदान होगा
और मैं इसी की प्रतीक्षा में खड़ी मिलूंगी

मेरे और तुम्हारे बीच
फन फैलाये खड़ा था कालिया नाग
और इस बार
मैं चख चुकी थी स्वाद उसके विष का 

यह जानने के  बाद 
तुम
थे पशु ...
मै वैश्या दुराचारिणी ..

ओ प्रेमी!
भटकते हुए जब मैं पहुंची तुम्हारे द्वार

तुमने फेंका  फंदा
वृन्दावन की संकरी  गलियों के मोहपाश का
जिनकी आत्मीयता में  खोकर
मैंने  सपनो के  निधिवन को बस जाने दिया था घर की देहरी के बाहर
गर्वीली नई  धरती पर प्यार  की  फसलों का वैभव  फूट रहा था 
तुमने कहा
राधा !
राधा ही  हो तुम..
और
प्रेम पाप नही..

जब जब
पति से प्रेमी बनता है  पुरुष
पाप पुण्य की परिभाषा बदल जाती है
देह आत्मा
और 
स्त्री 
वैश्या से राधा बन जाती है..

-लीना मल्होत्रा






Wednesday 17 August 2011

कई टुकड़े मैं ...

(मेरी यह कविता दैनिक जागरण(जम्मू) २२ अगस्त २०११ में प्रकाशित हुई है).




एक टुकड़ा    
मेरे मन की उदासियों के द्वीप पर रहता है 
सैलाब में डूबता उतरता भीगता रहता है
उसे नौका नहीं चाहिए 

एक टुकड़ा
थका मांदा 
चिंता में घुलता है पार उतर जाने की 
चालाकियों की तैराकी सीखता है  
युक्तियों में गोते लगाता है
फिर भी
भीगना नही चाहता  
सैलाब से डरता है डरता है

एक टुकड़ा
जिद्दी
अहंकारी
सपनो की मिटटी लगातार खोदता है
सोचता है
डोलता है
डांवा डोल
भटकता है

एक टुकड़ा विद्रोही है
वह तोड़ता है वर्जनाये
ठहरे हुए पानी को खड्डों में से उडाता है
छपाक छपाक

एक टुकड़ा स्वार्थी है
सुवर्ण लोम को फंसाता है
उसकी पीठ पर सवार करता है समंदर पार
फिर उसी सुवर्णलोम की हत्या कर नीलाम करता है उसकी खाल

एक टुकड़ा वीतरागी
किनारे पर खड़ा देखता है
उसकी आसक्ति दृश्य से है
वह धीरे धीरे टेंटालस के नरक की सीढियां उतरता है 

एक टुकड़ा
भेज देती हूँ तुम्हारे पास
तुम्हारे सीने पर मेरा हाथ है
और तुम सो रहे हो
वह भी सोता है तुम्हारे स्पर्शों में बहता है
साँसों में जीता है
उसे बाढ़ से बहुत प्रेम है


इन्ही टुकड़ों के संघर्ष, विरोध और घर्षण  में
बची रहती हूँ मैं
अपने पूरे अस्तित्व के साथ
एक रेत का समंदर मेरे भीतर पलता है
जिस पर कोई निशान शेष नही रहते.

-लीना मल्होत्रा
१७.०८.२०११ / समय ०९.०० साँय

Sunday 7 August 2011

मैं आई थी

मैंने तुम्हे देखा

किताबे बिखरी थी 
कुछ आधे लिखे पन्ने फाड़ कर फेंक दिए गए थे 
पेन खुला पड़ा था 
और बेसुध सोए हुए थे तुम
कुर्सी पर सर टिका था ...

बिना आहट और अधिकार के घुस आई हूँ मैं 
बची हुई चाय  प्याले में से उलट दी है और गंध और  स्पर्श  को बचा लिया है 
धुले  हुए  प्याले को  अभिवादन के लिए तैयार बैठा पाओगे  प्लेट पर 
सिगरेट की ऐश ट्रे की राख उड़ा दी है
और
धूएँ के सब गुनाह माफ़ करके उसे मुक्त कर दिया है 
सुबह तक  एक चिनार का पेड़ उगा मिलेगा उसमे

पागल दीवारों पर लिपटे हुए सब जाले और सिरफिरी धूल को पोंछ  दिया है. 

तुम्हारी खिड़की से जो  लाल गुलाब झांक रहा था 
उसे सहला कर 
समझा दिया है उपेक्षित महसूस न करे 
तुम व्यस्त हो...
बिस्तर पर कुछ सिलवटें बिखेर दी हैं 
धुली हुई चादर अलमारी से निकाल कर पैताने रख दी है 
और अलमारी में बंद कर दी हैं अलग अलग रंगों की  शुभ कामनाएं 
ठीक तुम्हारे कपड़ो के बराबर में 
वह इंतज़ार कर रही हैं...

न जाने कल तुम कौन सा रंग चुनोगे?

Sunday 31 July 2011

तीन बच्चे

लगातार  बढ़ रहा है कूड़े  का ढेर इस धरती की छाती पर
और ३ बच्चे उसे ख़ाली करने में जुटे हैं 
इनके गंतव्य बोरियों में इनके छोटे छोटे कंधो पर लदे हैं 
भर जायेंगी बोरियां  मैले कागजों के सपनों से 
भींचकर ले जायेंगे सारे वायरस और बैक्टीरिया  अपनी नन्ही हथेलियों में
ठेलकर दूर भगा देंगे सब तपेदिक हैजे और मलेरिया के कीटाणु 
और 
इंतजाम   करेंगे  फ्लैट में रहने वाले बच्चो की सुरक्षा का  

                -२-
बिंधी नज़रों से देखते हैं चाँद को
सोचते हैं
ये गोल मैला कागज़ का टुकड़ा
जो छिटक के भाग गया है उनकी गिरफ्त से
जिस दिन कब्जे में आएगा
बोरी में बंद करके शहर से बाहर फ़ेंक दिया जाएगा

        -३-
विराम लेते हैं 
अपने काम  से
खेलते है तीन छोटे बच्चे कूड़े के ढेर पर. 
दुर्गन्ध की अज़ान पर करते हैं सजदा
लफंगे  कीटाणुओ को सिखाते है अनुशासन आक्रमण का  
अपने क्रूर बचपन को निठ्लेपन की हंसी में उड़ा कर
कूड़े के ढेर में से  बीनते है  हीरों की तरह अपने लिए कुछ खिलौने 
एक को मिलता है एक अपाहिज सिपाही बिना हाथ का
दुसरे को  पिचकारी
तीसरे को टूटा हुआ  बन्दूक

  
उनके सपनो  के  गर्म बाज़ार में
नंगे पैर चलकर  इच्छाएं घुसती हैं उनींदी आँखों में
इश्वर की उबकाई से लथपथ पत्थर पर लेटे हुए
वे  सपने  में ढूंढते  है
 एक साबुत हाथ वाला आदमी
 लाल रंग
 गोलियां

देश की सड़ांध चित्रों में सजकर सेंध लगाती है मानवीयता के बाज़ार में
देश प्रगति के बंदरगाह पर एंकर  गिरा देता है
देशों के विदेश मंत्री मिलते हैं चाय पर
और रजामंद होते हैं एक साँझे  बयान के लिए  
"हम आतंक के दुश्मन हैं".

--लीना मल्होत्रा 

Thursday 28 July 2011

धुन

नहीं
मै नही दिखाना  चाहती अपने घाव  हरे भरे
तुम्हारी  सहानुभूति  नही चाहिए मुझे
मैं जानती हूँ  तुम  मुझे मलहम लगाने के बहाने आओगे
और
उत्खनन करोगे  मेरे आत्मसम्मान की रक्त्कोशिकाओ का

मै तो बजना चाहती हूँ बांसुरी सी
 कींचल के पेड़  की तरह जो अपने ही सूराखो से बज उठता  है हवा के गुजरने पर
अपने ही ज़ख्मो से छेड़ देता है एक धुन मीठी दर्द भरी.

पेपरवेट में बंद  हवा जैसे सपने कैद हैं मेरी स्मृति में
जिन्हें मुक्त नही किया जा  सकता मुझे तोड़े बिना

कई बार ऐसे अपरिचित बादल बरस जाते हैं जो मेरे आकाश के  नही थे
उन्हें भटका के ले आया था  मेरा  ही संकल्प
 उनकी बारिश में खुशबु पा लेती हूँ तुम्हारे नाम की

तुम नही समझते जब तुम्हारा नाम किसी और के मुहं  से सुन  लेती हूँ
तो ये किसी प्रगाढ़ मिलन  से कम नही होता

और जख्मो का जिंदा रहना  तब और भी ज़रूरी हो जाता है
जो हर दम मुझे अहसास करते हैं
मरी नहीं हूँ मैं
मरे  नहीं हो तुम
जिंदा हैं दोनों इस दुनिया के किन्ही  अलग अलग कोनो में
अपने अपने झरनों के समीप
मुस्कुराते हुए  बह रहे हैं सागर में शेष हो जाने के लिए..

-लीना   मल्होत्रा


Friday 15 July 2011

ओ गोली वाले ..बम वाले

उनमे से कोई स्त्री
उसने पकाई थी तुअर की दाल और रोटी
शायद फिर कभी न बना पाए वो दाल
वो सोचेगी ये दाल मनहूस है

उसने पहनी होगी पीली धोती
सोचेगी पीला रंग मनहूस है

वह नही छोड़ने आई थी
पति को द्वार तक
उसने सोचा था रोज़ ही तो जाता है
उतनी देर में वह बच्चे का दूध गरम कर लेगी
उतनी देर में वह दुआ भी तो मांग सकती थी
उसने क्यों नही कहा इश्वर अंग संग रहना
उसने क्यों नही माँगा कि वह फिसल कर गिर पड़ती
उसका हाथ पैर या बाजू टूट जाती
वह रह जाता घर पर ही उसकी सुश्रुषा के लिए
उसने क्यों कहा था घर जल्दी आना
शाम को घूमने  चलेंगे
वह न कहती तो शायद वह अगली ट्रेन से आता

उसने क्यों न पहने  मंगल के कुसुम बालो में
उसने क्यों नही फ़ोन उठाया उस दिन
क्यों वह रूठ गई छोटी सी बात पर

अभी लाश लेने जाना है
जाने कौन सा हाथ टूटा होगा
जिससे पहली बार उसने ढकी थी उसकी आँखे और वह उसके स्पर्श में खो गई थी 
या फिर पैर जिससे उसने घूमे थे उसके साथ सात फेरे
साबुत होगा क्या उसका सर
जिसमे रहती थी सारी चिंताए प्यार और फ़िक्र
क्या पूरी होंगी वो आँखे
देख पाएगी अपनी छवि अंतिम बार उन आँखों में

ओ गोली वाले , बम वाले

तेरा उत्सव तो ख़त्म हो गया बस एक शाम में
उसकी शामे ही ख़त्म हो गई

बहुत से लोग मर गए
अनेक ज़ख़्मी हुए
जो घर में थे वो बुत में बदल गए ..

लेकिन जबकि तुम यह सोचते हो गोलीवाले  तुमने किया है 
उसका यह मानना है  कि वह खुद ही ज़िम्मेदार  है 
तो इस तरह तो जाने अनजाने वह तुम्हारी ही सहयात्रिणी हो गई है 
उसके जीवन की इस अंतिम यात्रा में जो अनंतकाल तक चलेगी

तेरा एक आंसू 
क्या तुम  नही बहाओगे  गोली वाले ...

--लीना मल्होत्रा 

Tuesday 5 July 2011

वह बात जो शब्दों में नही कही जा सकती थी...

शब्दों  के जादूगर ने रचाया ऐसा तिलिस्म
कि
हो गया सब काया कल्प
पेड़ पौधे हो गए छू मंतर
दिन घंटे युग बह गए नदी बन कर
बहने लगे साथ ही  प्रतिबद्धताओं के तिनके
धूएं के बादल बन गए  वचन 
और निष्कर्ष के मसौदे की  चिन्दियाँ फंस गई चक्रवात में  
औरत का दिल कबूतर बन कर 
मापने लगा आसमान
आसमान जो कभी भी समंदर कि देह धारण कर सकता था 

तब 
वह बात जो शब्दों में नही कही जा सकती थी
चुपचाप जा बैठी सन्नाटे की कोख में 
उस आकार की प्रतीक्षा में
जो 
इस काया कल्प की परिधि से परे हो
शाश्वत हो !

इस खतरनाक जादुई माहौल  में वह अपने  प्यार का इज़हार कैसे करती ?

- लीना मल्होत्रा.

Friday 1 July 2011

अजब इश्क है दोनों का...

अभी अभी जिस आग से उतरी  है दाल
उसी आग पर चढ़ गई है  रोटी जवान  होकर पकने के लिए 

दोनों  प्रतीक्षा करते है 
थाली का...
कटोरी का...
और कुछ क्षण के सानिध्य का  

रोटी मोहब्बत में
टुकड़ा टुकड़ा   टूट कर 
समर्पित होती है ...

डूबती है दाल में 

और गले मिल कर
डूब जाते हैं दोनों साथ साथ मौत के अंधे काल में 

अजब इश्क है दोनों का...

-लीना मल्होत्रा 

Tuesday 28 June 2011

प्यार.. बिना शर्तों के.


मै एक पारदर्शी अँधेरा हूँ 
इंतज़ार कर रहा हूँ अपनी बारी का
रात होते ही उतरूंगा तुम्हारे कंधो पर

तुम्हारे बालो के वलय की घुप्प सुरंगे  रार करती  हैं मुझसे 
तुम एक ही बाली क्यों पहनती हो प्रिये 
आमंत्रण देती है  मुझे ये 
एक झूला झूल लेने का  
और  यह  पिरामिड जहाँ से
समय भी गुज़रते हुए अपनी चाल धीमी कर लेता है
हवाओ को अनुशासित करते  हैं
और हवाए एक संगीत की तरह आती जाती रहती हैं
जिसमे  एक शरद ऋतु चुपचाप  पिघल के बहती रहती  है. 

तुम्हारी थकी मुंदती आँखों में तुम्हारे ठीक सोने से पहले 
मै चमकते हुए सपने रख देता हूँ
और अपनी सारी  सघनता झटककर पारदर्शी बन जाता हूँ
ताकि मेरी सघनता तुम्हारे सपनो में व्यवधान न प्रस्तुत कर दे.
क्या तुमने सोते हुए खुद को कभी देखा  है ?
निश्चिन्त ..अँधेरे को समर्पित,
असहाय ..पस्त ..नींद के आगोश में गुम
सपने भी वही देखती हो जो मै तुम्हे परोसता हूँ
और तुम्हारी देह के वाद्यों से निकली अनुगूंज को नापते हुए मेरी रात गुज़र जाती है
और मै तुम्हारा ही एक उपनिवेश बनकर गर्क हो जाना चाहता हूँ तुम्हारे पलंग के नीचे

तुम्हे उठना है सूरज के स्वागत के लिए तरो ताज़ा 
भागती रहोगी तुम शापित हाय 
सूरज के पीछे 
और मै सजाता रहूँगा पूरा दिन वो  सपने जो दे सकें तुम्हे ऊर्जा 
देखा कितना सार्थक है मेरा होना तुम्हारे और सूरज के बीच में धरा

क्या तुम मुझे पहचानती हो 
मै हर बार उतरा हूँ तुम्हारे क़दमों में और पी गया हूँ तुम्हारी  सारी थकान
और अनंतकाल से मै सोया नहीं हूँ.
जबकि  तुम अनंतकाल से भाग रही हो सूरज के पीछे 
और तब जब भूल जाती हो मुझे एक स्वप्न की तरह 
मै लैम्पपोस्ट  के नीचे खड़ा होकर प्रतीक्षा करता हूँ तुम्हारी 
प्यार करता हूँ बिना शर्तो के.

-लीना मल्होत्रा. 

Friday 24 June 2011

मै सहमत न थी.

जनवाणी समाचार  पत्र  04.09.2011   में यह कविता छपी है

नदी की लहरों
मैं नहीं बन पाई मात्र एक  लहर
नहीं तिरोहित किया मैंने अपना अस्तित्व नदी में
तुम्हारे जैसा पाणिग्रहण नहीं निभा  पाई मैं
इसलिए क्षमा मांगनी है तुमसे.

वृक्षों तुमसे नहीं सीख पाई दाता का जीवन
तुम्हारे फल, छाया और पराग देने के पाठ नहीं उतार पाई जीवन में
मेरी आशाओं के भीगे पटल पर धूमिल पड़ते तुम्हारे सबकों से क्षमा मांगनी है मुझे.

सूरज को पस्त करके लौटी गुलाबी शामो
तुम्हे  गुमराह करके 
अपने डर के  काले लबादों में ढक कर तुम्हे काली रातों  में बदलने के जुर्म में
क्षमा मांगनी है तुमसे

क्षमा मांगनी है कविता के उन खामोश  अंतरालों से
जो शब्दों के आधिपत्य में खो गए 
उन चुप्पियों  से
जो इतिहास के नेपथ्य में खड़ी रही बिना दखलंदाजी के
उन यायावरी असफलताओं से जिन्होंने समझौते की ज़मीनों पर नहीं बनाये घर

उन बेबाक लड़कियों से क्षमा मांगनी है मुझे जो मुस्कुराते हुए चलती है सड़क पर
जो बेख़ौफ़ उस लड़के की पीठ को राईटिंग पैड बना  कागज़ रख कर लिख रही है शायद कोई  एप्लीकेशन 
जो बस में खो गई है अपने प्रेमी की आँखों में
जिसने उंगलिया फंसा ली है लड़के की उँगलियों में
उन लड़कियों के साहस से क्षमा मांगनी है मुझे

जिनकी निष्ठा बौनी पड़ती रही  नैतिकता के सामने     
जो आधी औरतें आधी किला बन कर जीती रही तमाम उम्र
जिन्हें अर्धांगिनी स्वीकार नहीं कर पाए हम
जिनके पुरुष  नहीं बजा पाए उनके नाम की डुगडुगी
उन  दूसरी  औरतो से क्षमा मांगनी है मुझे.  

मुझे  क्षमा  मांगनी  है  
आकाश  में  उडती  कतारों के अलग  पड़े  पंछी से 
आकाश का एक कोना उससे छीनने के लिए
उस पर अपना नाम लिखने के लिए
उसके  दुःख में अपनी सूखी आँखों के निष्ठुर  चरित्र  के लिए

रौंदे गए अपने ही  टुकड़ों से
अनुपयोगी हो चुके रद्दी में बिके सामान से,
छूटे और छोड़े हुए रिश्तों से अपने स्वार्थ के लिए क्षमा  मांगनी है मुझे

नहीं बन पाई सिर्फ एक भार्या, जाया और सिर्फ एक प्रेयसी
नहीं कर पाई जीवन में बस एक बार प्यार
इसलिए क्षमा मांगनी है मुझे तुमसे
तुम्हारी मर्यादाओं का तिरस्कार करने के लिए .
घर की देहरी छोड़ते वक्त तुम्हारी  आँखों की घृणा  को अनदेखा  करने के लिए
तुम्हारे मौन को मौन समझने की भूल करने के लिए
मुझे क्षमा मांगनी है तुमसे!


Tuesday 21 June 2011

ज़ोर से आवाज़ न करें

"दुनिया इन दिनों" भोपाल से छपने वाली पत्रिका , अगस्त २०११ में यह कविता छपी है.  

हर रोज़ वह स्त्री उस मोड़ पर जाती है

जहाँ सूरज हमेशा के लिए डूब गया था. 
और वह निरापद अँधेरे को लिए लौट आई थी  
अब उसकी आँखे अँधेरे में देखने की अभ्यस्त चुकी है 
और निर्जनता  में जीने के आदी हो चुके है दिन 
तो भी  
बीन लाती है वह  कोई स्मृति कोई पीड़ा 
रोज़ दो लम्हों का करती है  जुगाड़   
जिसमे उसकी  स्मृति और पीड़ा कलोल करते हैं...
और उसके जीवन में उजाला भरते हैं
फिर छिपा देती है उन्हें तहखाने में

तहखाने में छिपे दो क्षण बतियाते हैं
कितना सघन था दोनों का प्रेम
उतनी ही  घनीभूत पीड़ा
और जानलेवा  स्मृतियाँ....
अब हमारी .. बस दो लम्हों की मोहताज़ हैं
और वे  गौरान्वित होते हैं
श..s
बाहर क़त्ल का पुरोहित आ चुका है
जाने दक्षिणा में क्या मांग ले...
उन्हें निर्देश है कि वे ज़ोर से आवाज़ न करें 

-लीना मल्होत्रा 

Friday 17 June 2011

एक चित्र एक याद.

"दुनिया इन दिनों" भोपाल से छपने वाली पत्रिका , अगस्त २०११ में यह कविता छपी है.

दो पटरियों  के बीच रास्ता  भूली  एक  बकरी..
कुएँ कि मुन्डेर पर पडी एक परित्य्क्ता  बाल्टी..
आधे वस्त्र पहनी घुटनो तक पानी मे डूबी
खेत मे वह्शाना तरीके से  काम करती एक किसान स्त्री..
बिना किसी राह्गीर अपनी छाया मे सुस्ताता एक घना आलसी  पेड..   
पतले मांस के वस्त्र पहना पोखर  मे भैँस के साथ नहाता
एक कंकालनुमा बच्चा..
नदी की सत्ता को पाटता एक  अहंकारी पुल..
बहाव की   प्रतीक्षा मे पुल के नीचे थम चुकी  एक सूखी  बेवा नदी..
अपनी अपनी ज़िंदगी की गठरी समेटे 
निरूद्देश्य भागते सब दृष्य ...

सामने की सीट पर 
मोहब्बत की पटकी खाने को बिलकुल तैयार बैठी  
किताब के हर्फों से  अपने ख्वाब  बीनती  एक लड़की..
म्युजिक के इयरफोन कानो मे ठूंस भविष्य की  ताल पर टिकी असुरक्षा को अनसुना करता
लगातार पैर हिलाता एक बेपरवाह लडका .. 
९ नग  पुनह पुनह गिनती रखती और अपनी दृष्टि से सबके चरित्रों को तौलती एक मारवाड़ी औरत ..
अपनी अचीन्ही जिन्दगी परान्ठे  मे लपेट अचार के साथ सटकता  एक बाबुनुमा अधेड़ आदमी..
इन सब बेनामी चेहरो और ध्वनियों  के अस्तित्व को नकारती ट्रेन की चीखती आवाज़..
और खामोशी मे डूबी  मैं....

कट ही जाता यह सफर इतनी अजनबी ज़िंदगी मे
अगर  
ऐसे में
आत्महत्या कर चुके अतीत से छिटका हुआ एक जिंदा लम्हा
मेरी झोली में न गिरता
और मेरे कान मे न  कह्ता कि मै अकेली नही हूँ...

उस एक लम्हे की ऊँगली थामे
मैं चल पड़ी हूँ 
आग  कि लप्टो  वाली  सुर्ख पाखण्डी गलियो में 
जहाँ
कयामत के बाद भी अन्गारो मे आंच बची थी

गाडी एक गुमशुदा स्टेशन पर रुकी है
समय की धक्कामुक्की को ठेलते और मृतभक्षी घृणा के पक्षियों को सुदूर आसमान में उड़ाकर
अपने पूरे वजूद के साथ्
आ बैठे   हो तुम मेरे पहलू में
और मै मुस्कुरा कर
ले चली हूँ तुम्हे  अपने साथ अपनी यात्रा पर
बिना टिकट !

-लीना मल्होत्रा
.


Tuesday 14 June 2011

लड़कियां

लड़कियां जवान होते ही

खुलने लगती हैं
खिडकियों की तरह
बाँट की जाती है हिस्सों में
आँखें, मन, ज़ुबाने , देहें , आत्माएं!

इनकी देहें
बहियों सी घूमती हैं घर
दर्ज करती
दवा, दूध,
बजट और बिस्तर का हिसाबI

इनकी आत्माएं
तहाकर रख दी जाती हैं
संदूकों में
उत्सव पर पहनाने वाले कपड़ों की तरहI

इनके मन
ऊंचे ऊंचे पर्वत,
जिस पर
बैठा रहता है,
कोई धुन्धलाया हुआ पुरुष
तीखे रंगों वाला झंडा लिएI

इनकी आँखें
बहुत जल्द
कर लेती हैं दृश्यों से समझौता,
देखती हैं
बस उतना
जितना
देखने की इन्हें इजाज़त होतीI
पूरी हिफाज़त से रखती हैं
वो सपने
जिनमे दिखने वाले चेहरे
इनकी कोख से जन्मे बच्चों से बिलकुल नहीं मिलतेI

इनकी ज़ुबाने
सीख लेती हैं -
मौन की भाषा,
कुल की मर्यादा ,
ख़ुशी में रो देने
और
गम में मुस्कराने की भाषा,
नहीं पुकारती ये -
वो लफ्ज़,
वो शब्द,
वो नाम
जिनके मायने उन रिश्तों से जुड़ते हैं
जो इनके कोई नहीं लगते

इनकी तकदीरें
नहीं चुनती रास्ते,
चल पड़ती हैं दूसरों के चुने रास्तों पर,
बुन लेती हैं रिश्ते
चुने हुए रास्तो की छाया से,
कुएं से,
दूसरों के चुने हुए ठीयों से ,
इनकी तकदीरे मान जाती हैं-
नहीं ढूदेंगी
उन मंजिलों को
जो इनकी अपनी थी I
और
जिन्हें ये उन रास्तों पर छोड़ आई है
जो
इनकी नियति के नहीं स्वीकृति के रास्ते थेI

इनकी जिंदगियां -
खर्च करती हैं दिन, घंटे और साल
दूसरों के लिए,
बचा लेती हैं,
बस कुछ पल अपने लिएI
इन्हीं कुछ पलों में
खुलती हैं खिडकियों सी
हवा धूप, रौशनी के लिएI
और टांग दी जाती हैं
घर के बाहर नेम प्लेट बनाकरI

इनके वजूद निर्माण करते हैं
आधी दुनिया का
ये -
बनाती हैं
भाई को भाई ,
पिता को पिता,
और
पति को पति,
और रह जाती है सिर्फ देहें , आत्माएं, जुबानें, और आँखे बनकरI
ये
जलती हैं अंगीठियों सी,
और तनी रहती है
गाढे धुयें की तरह
दोनों घरों के बीच मुस्कुरा कर I
इनके वजूद
होते हैं
वो सवाल
जिनके जवाब उस आधी दुनिया के पास नहीं होते I

ये -
तमाम उम्र समझौते करती हैं
पर मौत से मनवा के छोडती हैं अपनी शर्ते
ये अपने सपने, मंजिलें, रिश्ते
सब साथ लेकर चलती हैं
इनकी कब्र में दफ़न रहते हैं
वो सपने,
वो नाम
वो मंजिलें
जिन्हें इनकी आँखों ने देखा नहीं
जुबां ने पुकारा नहीं
देह ने मह्सूसा नहीं
ये अपने पूरे वजूद के साथ मरती हैं !
-लीना  मल्होत्रा 

Saturday 11 June 2011

यू पी एस सी के बस स्टॉप पर बैठी एक लड़की

यू पी एस सी के बस स्टॉप पर बैठी एक लड़की 
मानो जड़ हो गई है
कोई बस नहीं पकड़ी उसने पिछले तीन घंटे से
या  तीन शताब्दियों से 
पढने की कोई कोशिश भी नहीं की किसी बस का नम्बर
बस सोचे चली जा रही है
अनंत विस्तार वाली किसी सड़क पर निकल गई है उसकी चेतना
अफ्रीका के घने जंगलों में शायद खो गई हैं उसकी स्मृतियाँ
कितने ही लोगों की जलती निगाहे उसकी ग्लेशियर बनी दृष्टि से टकरा कर वाष्पीकृत हो गई हैं  

हर कोई बस में चढ़ने से पहले पूछना चाहता है उससे 
माजरा क्या है
क्यों बैठी हो ऐसे
क्या किसी परीक्षा का परिणाम आ गया है
डर रही हो घर जाने से
पर नहीं 
इस  उम्र  में  असफलताएं  नहीं बदलती किसी को बुत में.   
तो क्या वह  प्रतीक्षा कर रही है किसी की
क्योंकि एक सन्नाटा उसकी पेशानी पर बैठा हांफ रहा है  
या विदा कह दिया है किसी ने उसको या उसने किसी को
क्योंकि उसकी  आँखों के  भूगोल  में  पैबस्त है एक उम्मीद
किसी के लौट आने की
या किसी तक लौट जाने की
उसके हाथ में पकड़ा एक खामोश मोबाइल
उसमे शायद किसी का संदेस है जिसने उसके लम्हों को सदियों में बदल दिया है.
क्योंकि उसकी उँगलियों में बची है अभी तक ऊर्जा
जो धीमे धीमे सहला रही है मोबाइल की स्क्रीन  को
मानो उस दो इंच क्षेत्रफल  में ही वह भूल भुलैय्या दफ़न है
जिसमे कोई खो गया है
और साथ ही वह भी खो गई है उसे ढूंढते हुए...

क्या सोच रही है वह
कोई नहीं जानता 
उसकी सोच किले की दीवारों की तरह आकाश तक पसरी है  
वह है कि सोचे चली जा रही है

बिना मुस्कुराये 
बिना रोये
बेखबर   
बस सोचे ही चली जा रही है
-लीना मल्होत्रा 

Tuesday 7 June 2011

आफ्रा तुम्हे शर्म नहीं आती तुम अकेली रहती हो.


आफ्रा को  खींच  लाने  के  सड़क  के  सारे  प्रलोभन  जब  समाप्त  हो  गए 
तो  वह सड़क जो आहटो के लिए एक कान में तब्दील हो चुकी थी
अचानक उठकर आफ्रा  की  देहरी पर आ गई है
और द्वार पर दस्तक   दे कर पूछती है
क्या तुम्हे किसी की प्रतीक्षा है
नहीं
क्या तुम कहीं  जाना चाहती हो
नहीं
क्या कोई आने वाला है
नहीं

आफ्रा  कहती है  नहीं
और वह  आँखें  बन  कर चिपक  जाती  है उसके  घर की दीवारों पर 
उन  पर्दों  के  बीच लटक जाती है उसकी पगडंडियाँ 
जो आफ्रा की   दुनिया  को  दो  भागों  में  विभाजित  करते  थे.
उसकी हैरान दृष्टि भेदती  है  
आफ्रा के  विचारो  के कहीं  ध्वस्त तो कही मस्त  गाँव को 
उसके  अवशेषों में ढूंढती है कहानियां और मस्ती में अश्लीलता   
एक श्रृंखला में  पिरोये   हुए   अलग  अलग  सालों  से  टूट  कर  गिरे  कुछ प्रचंड,
 कुछ ख़ामोश  लम्हे 
वह बटन  जो  सूरज    को  बुझा  देता  है उसकी   मर्ज़ी  से
और  वह अँधेरा जिसे वह   घर की सब बाल्टियो भगौनो और कटोरियों में इकठा करके रखती है 
आगन्तुक के आने पर सबके छिपने की जगह नीयत है
लेकिन कोई नहीं भागता
और ढीठपने के साथ  देखते है सड़क को घर का सामान बनते हुए.
सब कुछ अचानक निर्वस्त्र हो गया है.
और  
आफ्रा  सोचती है   इन  खौलती  आँखों  से   परे  अपनी  निष्ठां  को  कहाँ  छिपाये 

एक प्रतिक्रिया विहीन दाल और रोटी वह  अपने इस अनचाहे अतिथि को परोसती है 
तभी सड़क उससे पूछती है
तुम क्यों जीती हो
आफ्रा  अचकचाकर कहती है 
सब जीते है क्योंकि जीना पड़ता है
तुम गीत क्यों गाती हो
मुझे अच्छा लगता है
तुम्हे पता है तुम्हारे गुनगुनाने की आवाज़ बाहर तक सुनाई पड़ती है
आफ्रा चुप
और तुम लड़की हो
अँधेरे मापती और अकेले गीत गाती लड़की कोई पसंद नहीं करता
कपडे देखे है तुमने अपने 


जानती हो लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते है कि तुम. ..

इससे पहले कि वह बात पूरी करे आफ्रा फट पड़ती है
बताती है  उसे कि क्या कहते हैं लोग सड़क के  बारे में ..

कि सड़क!  तुम निम्फ हो और लाखों राहगीर गुज़रे है तुम्हारी राहों से 
फिर भी तुम्हे न जाने कितने मुसाफिरों का इंतज़ार है.
क्या तुम थोड़ी और दाल लोगी ?
और आफ्रा  कटोरी से अँधेरा उलट कर दाल
और ग्लास  में भरी मस्ती बहा कर जल प्रस्तुत  करती है 
और तुम्हारी तो कोई मंजिल भी नहीं है तो फिर क्यों बिछी रहती हो सड़क 
किसके इंतज़ार में ?
वो कमबख्त ढीठ लम्हे जो तिल तिल जलने के  आदी हो चुके है ठठा कर हँसते हैं
और आफ्रा को  मुबारकबाद देते है 
अकेले शहर में रहने वाली लड़की की भाषा को सीखने का जश्न मनाते हैं
सड़क भी आमंत्रित है 
लेकिन  सड़क  लौट जाती है लगभग भागते हुए!
और रद्दी की टोकरी आफ्रा  पहली बार 
देहरी के बाहर रख देती है 
जिसमे ढेरो चरित्र के सर्टिफिकेट है जो उड़ कर आ गए थे उसी सड़क के रास्ते 
और जिनका मूल्य है मात्र ५ रूपये किलो.
-लीना मल्होत्रा 

Monday 30 May 2011

तुम्हारे प्रेम में गणित था

वह  जो प्रेम था 
शतरंज की बिसात की तरह बिछा हुआ हमारे बीच.
तुमने चले दांव पेच  
और मैंने बस ये
कि इस खेल में उलझे रहो तुम मेरे साथ.

तुम्हारे प्रेम में गणित था 
कितनी देर और...?
मेरे गणित में प्रेम था
बस एक और.. दो और...


वह  जो  पहाड़  था 
हमारे बीच
मैंने सोचा
वह एक मौका था 
तय कर सकते थे हम उसकी ऊँचाइयां 
साथ साथ हाथ थाम कर
एक निर्णय था हमें साथ बाँधने का
तुम्हे लगा वह अवरोध है मात्र 
और उसको उखाड़ फेकना ही एकमात्र विकल्प था
और
एक नपुंसक युग  ख़त्म हो गया उसे हटाने  में 
हाथ बिना हरकत बर्फ बन गए चुपचाप 

वह जो दर्द था हमारे बीच,
रेल की पटरियों की तरह जुदा रहने का
मैंने माना उसे
मोक्ष  का  द्वार जहाँ अलिप्त होने की पूरी सम्भावनाये मौजूद थी. 
और तुमने
एक समानान्तर जीवन
बस एक दूरी भोगने  और जानने के बीच
जिसके पटे बिना संभव न था प्रेम

वह जो देह का  व्यापार था हमारे बीच 
मैंने माना 
वह एक उड़नखटोला था
जादू था
जो तुम्हे मुझ तक और मुझे तुम तक पहुंचा सकता था 
तुमने माना लेन-देन
देह एक औज़ार
उस औजार से तराशी हुई एक व्यभिचारी भयंकर मादा
 जो
शराबी की तरह  धुत हो जाए और
अगली सुबह उसे कुछ याद न रहे
या फिर एक दोमट मिटटी जो मात्र उपकरण हो एक नई फसल उगाने का  .


शायद तुम्हारा प्रेम दैहिक  प्रेम था
जो देह के साथ इस जन्म में ख़त्म हो जाएगा
और मेरा एक कल्पना
जो अपने डैने फैलाकर अँधेरी गुफा में मापता रहेगा  अज्ञात आकाश,
और नींद में बढेगा अन्तरिक्ष तक
 मस्तिष्क की स्मृति में अक्षुण रहेगा मृत्यु  के बाद भी
और सूक्ष्म शरीर ढो कर ले जाएगा उसे कई जन्मो तक..
मैंने शायद तुमसे सपने में प्रेम किया था
अगले जन्म में..
मै तुमसे फिर मिलूंगी
किसी खेल में
या व्यापार में
तब होगा प्रेम का हिसाब..
मै गणित सीख लूंगी तब तक..
-लीना मल्होत्रा 



Wednesday 25 May 2011

नैनीताल के अखंड सौन्दर्य में डूबा अस्तित्व

सन्नाटे में  थोड़ी  ठण्ड घुली हुई  थी  . उसमे  नुकीली नाक और तरकश सी खिंची आँख वाले सुन्दर और सरल लोग घूमते दिख रहे थे .अडिग पहाड़ निर्दोष   ताल के आस पास  ऐसे खड़े थे मानो कोई प्रेमी संकल्प लेकर खड़ा है की प्रेमिका की प्रतीक्षा में उसकी देहरी पर ही ज़िन्दगी गुज़ार देगा.  बादल पहाड़ की चोटियों को उसके  संकल्प से डिगाने पर आमादा थे और पूरा जोर लगा रहे थे की इन पहाड़ों को अपने साथ उड़ा कर ले जाएँ.   हवा की सरगोशियां आत्मा तक को सुकून पहुंचा रही थी . पूरी प्रकृति अपनी ही सुन्दरता पर मोहित होकर हतप्रभ खड़ी थी. घुमावदार रास्ते सुरीले रागों की तरह आमंत्रित कर रहे थे और उन पर चलने का आनंद किसी गीत को रूह से महसूस करने से कम न था.चट्टानों पर भी बहुत छोटे सफ़ेद फूल खिले हुए थे उनके बीच में एक जामुन रंग की बिंदी थी.  फूलों के इतने चटख रंग थे कोई रंगरेज़ उनकी नक़ल न कर पाए. सौन्दर्य इतने सही अनुपात में हर इंच में फैला हुआ था की पक्षपात करने  की कोई सम्भावना शेष न थी.

मै सपरिवार नैनीताल छुटियाँ मनाने गई थी. हम होटल मनु महारानी में रुके थे. होटल थोड़ी ऊंचाई पर स्थित था .होटल तक पहुँचने के लिए करीब २० सीढ़ी चढ़ना  पड़ता था और हमारी  फूलती सांस हमारे पहनावे, भाषा, मोबाइल फोन्स, और कार की तरह हमारे शहरीपन  का परिचय दे रही  थी. होटल से ताल का दृश्य बहुत सुन्दर दीखता था मानो किसी मचान पर बैठे हो. वहां आकर ऐसा लगा की बहुत धीमे स्वर में बात कितने आसानी से सुनी जा सकती है और चिल्लाने की कोई ज़रुरत नहीं है. उन तीन दिनों में मैंने एक भी कुत्ते को भौंकते  हुए नहीं सुना.

हम अगले दिन सुबह जल्दी ही उठ गए और इसके लिए मुझे खासी मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि बच्चे और मेरे पति देर तक सोने के आदी  हैं. और उन्हें हमेशा ये शिकायत रहती है कि हर बार किसी भी पहाड़ पर आने के बाद मुझे सूर्य उदय देखने का एक दौरा पड़ता है. और पिछली बार जब मैंने मसूरी में यह हठ किया था और हम सूर्योदय देखने निकले थे तो बन्दर हमारे पीछे पड़ गए थे शायद पूरी रात प्रतीक्षा करने के बाद हम ही वह  पहले जजमान  थे जिनसे वह कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों की आशा कर रहे थे. और आशान्वित भोजन न पाकर उन्होंने हमें खदेड़ कर ही दम लिया था. और यह बात हर बार मेरे इस प्रस्ताव को पस्त करने के लिए आज तक एक अस्त्र की तरह प्रयोग में लाई  जाती है.




हमने तय किया कि सबसे पहले पूरी ताल का एक चक्कर लगाकर अपनी उपस्थिति  दर्ज  करवा  दें.  लक्षित दूरी का आधा ही रास्ता तय हुआ होगा कि एक नाविक ने रास्ता रोक लिया.  मैं उसे रास्ता रोक लेना इसलिए कहूँगी कि  वह बच्चो के लिए इतना रोचक प्रस्ताव था के आगे के मंजिल नाव में ही तय हुई.  उसकी नाव दूसरी नावों की अपेक्षा कम सुसज्जित  थी.  उसने बताया के ताल की गहराई १२० फुट है और वह सामने वाला पहाड़ पहले दुगना ऊंचा था और वहां से चीन की दीवार दिखती थी. अब वह टूट टूट कर आधा रह गया है. उसने यह भी बताया कि  इस बार सैलानी ही नहीं हैं. वरना बारी की प्रतीक्षा करनी पड़ती है. यह बताते हुए उसके चेहरे पर गर्व की एक रेखा खिंच गई जो संभवत:  बरसो से उसके व्यवसाय के प्रति  उसकी  निष्ठां से  उपजी थी . मेरे पति का वार्तालाप उसके साथ जारी था और नैनीताल के सब पर्यटक स्थानों से लेकर उसके रहन सहन, उसकी आय, लाईसेंस के दाम  तक का लेखा जोखा उनकी स्मृति  में सुरक्षित हो गया था. प्रकृति का आशीष बरस रहा था. अपने नाम पर एक पूरे नगर के नाम का गौरव समेटे ताल  इतनी विनीत और इतने शांत थी मानो कोई सन्यासी निर्वाण प्राप्त करने के बाद विदेह हो जाए. किनारे पर खड़ी एक निर्धन किशोरी अपनी आँखों के अल्हड़पन से ही किसी का भी घमंड चूर कर सकती थी. वहां की चिड़िया भी मुझे शहरी चिड़िया से अधिक मस्त लगी. मछलियाँ भी अधिक खुश थी आटे का गोला खाने के बाद यूं लगा धन्यवाद कह गई है. शायद यह मेरी नज़र का फेर था.एक कुत्ता एक होटल की छत पर यूं बुत बन कर खड़ा था की एक पल के लिए मुझे भ्रम हो गया के वह वास्तव में सजावट के लिए होटल की छत पर तराश दिया गया है. लेकिन वहां के सौन्दर्य में शायद किसी मानवीय प्रयास से रचे कृत्रिम बुत व्यवधान ही उपस्थित करता  , कुत्ते ने अपनी पूँछ हिलाकर इसकी पुष्टि कर दी.


नाविक ने हमें नयना माता के मंदिर के निकट किनारे  पर  छोड़ दिया . हमने माता के दर्शन किये . मेरी बेटी ने अपनी इच्छाओं की लम्बी सूची माता के दरबार में प्रस्तुत कर दी. इस सूची पर उसने रात भर बैठ कर 'होम वर्क' किया था. 'आपने क्या माँगा?' उसके निश्चित प्रश्न का उत्तर मै हर बार मंदिर के प्रांगण में ही सोच लेती हूँ.


हम काफी  जगह घूमे लेकिन मुझे गुफाओं के बगीचे और बड़ा पत्थर ने विशेष रूप से आकर्षित किया. टाईगर गुफा अन्दर से बहुत संकरी है. सुविधा के लिए प्रकाश कर दिया गया है  उससे गुफा दर्शनीय तो हो गई लेकिन उसका वजूद ख़त्म हो गया . गुफा अँधेरे, भय और मन के अचेतन से सम्बंधित है. यह गुफा प्रकृति ने बनाई होगी  उसमे बहुत सा योगदान किसी चीते की इच्छा का भी रहा होगा और उसे तराशने में चीते के  नखों ने भी प्रयास किया होगा. विगत में हुई  हिंसा और हिंसक गतिविधियाँ इतिहास में स्थान प्राप्त करने के बाद हमेशा रोचक हो जाती हैं.






 बड़ा पत्थर पर अंग्रेजी राज्य में सज़ा काटने के लिए कैदी को पत्थर के दूसरी तरफ निर्वासित कर दिया जाता था.


उसके बाद हमने  एक ऐसी  पहाड़ी की ओर प्रस्थान किया  जहाँ से हम हिमालय दर्शन कर सकते हैं. बहुत से लड़के अपना टैली-स्कोप छोड़ के हमारी तरफ लपके. अभी एक से सौदा सौ रूपये में पट ही रहा था की उसका प्रतिद्वंद्वी बीच में आ टपका और बोला मैं ५० में दिखाऊंगा. अभी वाले ने फ़ौरन ५० पर ही  हामी भर दी. लेकिन उसका प्रतिद्वंद्वी या तो बहुत बड़ा शातिर था या फिर उससे कोई पुराना हिसाब चुकता कर रहा था बोला ३० रूपये में दिखाऊंगा. हमारे वाला अपना ग्राहक छोड़ने को कहाँ तैयार था बोला मै भी ३० में दिखाऊंगा. अब उसने तुरुप का पत्ता फेंका बोला साथ में दूरबीन भी दूंगा. दूरबीन रहित हमारा वाला अब मायूस हो गया . उसे लगा अब तो हम हाथ से गए. लेकिन हमने अपनी ग्राहकी निष्ठां का परिचय देते हुए अपना पाला नहीं बदला.
c


बादल उपद्रवी हो गए थे और संभवत: इस बाजारी खेल से रुष्ट होकर हमारे और हिमालय के बीच में आ गए थे. और यह ऐलान कर दिया था न तो ३० और न ही १०० में किसी भी दाम पर हिमालय का मोल भाव नहीं किया जा सकता. टेली-स्कोप से  हमने  मुक्तेश्वर मंदिर भी देखा. एक लाल हनुमान जी का मंदिर जो सैन्य क्षेत्र में है और आम नागरिक के लिए प्रवेश वर्जित  है.और वह पॉइंट जहाँ सैनिक रॉक क्लाईम्बिंग करते हैं. कोसी नदी पतले काले तार की तरह तलहटी में बह रही थी. उस अखंडित अस्तित्व में तिरोहित होते हुए हम खुद को एक स्वप्न में बदलते हुए देख रहे थे.


अगले दिन मेरी बेटी ने जिम कोर्बेट जाने के लिए टाइगर प्रिंट की पोशाक पहनी और बोली की 'टाइगर मुझे देख कर कुछ नहीं कहेगा सोचेगा मेरी बहन है. मैंने कहा लेकिन हम सब पर आक्रमण कर देगा सोचेगा मेरी बहन को कहाँ ले कर जा रहें हैं'. हम बहुत हँसे. हमारा सारा विषाद, अवसाद, परेशानियाँ और तनाव उन्ही पहाड़ियों पर ही रह गया था. हम खुश थे, थोड़े अधिक हरे भरे, थोड़े अधिक एक दूसरे के साथ बंधे हुए.
जिम कॉर्बेट पहुँचने पर पता लगा की टिकेट उपलब्ध नहीं है और किसी एजेंट की जुगाड़ से ही यह संभव हो पायेगा. एजेंट ने टाइगर देखने का जो दाम बताया उतने में तो एक छोटा मोटा टाइगर सा दिखने वाला कुछ खरीद कर ड्राईंग रूम में सजाया जा सकता था. इस देश में आम आदमी को शायद टाइगर देखना भी नसीब नहीं. वैसे भी यह अमीरों के ही चोंचले रहे है. पहले शिकार करने के लिए  उसका पूरे टाइगर समाज पर कब्जा था अब टाइगर देखने की सारी सीटों पर.  - लीना मल्होत्रा.     

Monday 16 May 2011

मैं व्यस्त हूँ


दिनचर्या के कई इतिहास रचती हूँ मैं
खाना पकाती,
रोटी फुलाती, परचून से सौदा लाती, 
बस में दफ्तर जाती
क्या तुम जानते हो 
इन्ही स्वांगो के बीच 
फूल कर कुप्पा हुई एक रोटी रतजगा करती है प्रतीक्षा में  
बासी होने तक

घर का बुहारा हुआ सबसे सफेदपोश कोना 
वसंत के रंग बसाता है पतझड़ आने तक,

वह बस जिसमे मै अकेली हूँ 
और तुम्हे
उस जंगल से जिसका नक्शा सिर्फ मेरे पास है
निकाल कर रख लिया है मैंने बगल वाली सीट पर,

भूल आई हूँ मैं  तुम्हे उसी बस में
और मुझे नहीं मालूम  की उस बस का आखिरी स्टॉप  कौन सा है.
ठीक उसी समय 
कल्पनाओं से बेदखल हुए वीतरागी पतझड़ के सूखे हुए पत्ते,
दूर तक उड़ते हुए उस बस का पीछा करते है,

विचित्रताओं से भरी हुई इस दुनिया में 
जब तुम्हारी खिड़की पर पौ फटती है
और तुम सुबह की पहली चाय पीते हो 
तो अखबार की कोई खबर पढ़ कर तुम्हे ऐसा लगता है की इस दुनिया में सब कुछ संभव है 
कि
अचानक किसी मोड़ पर  तुम मुझसे टकरा भी सकते हो 
क्या तुम जोर से रिहर्सल करते हो 
अपने प्रश्न की 
कैसी हो तुम? 

क्या तुम जानते हो
एक अरसे से बंदी हो तुम मेरे मन में
और सांस लेने के लिए भी तुम्हे मेरी इजाज़त लेनी पड़ती है
और जब कभी 
मुझे लगता है कि 
तुम इस घुटन में कहीं मर तो नहीं गए 
तो  मै घबरा कर अचकचा के उठती हूँ 
तब मेरे बच्चे मुझे कितनी हैरत से देखते हैं. 

अपने  व्यस्ततम क्षणों में 
जब मै दिनचर्या के कई इतिहास  रचती हूँ 
कपडे धोती हूँ 
 इस्त्री करती हूँ 
बच्चों को स्कूल छोड़ने जाती हूँ 
और वह सब उपक्रम करती हूँ 
जो हम तब करते हैं 
जब करने को कुछ नहीं होता 
तब आकाश का चितेरा पूरी मशक्कत करता है
कि 
महाशून्य में डोलती यह धरती
 कहीं सरक न जाए उसके आगोश से.
-लीना मल्होत्रा 

Wednesday 11 May 2011

ऐसी खुशियों की जब बारात सजी


उस आँगन में

कोई आने वाला था
जहां बरगद ने सौ बरस तपस्या की थी I

बरगद खुश था उसके हर पत्ते ने दुआ में हाथ उठाये
खूब आशीर्वाद बरसाए
घर के सभी चमकदार बर्तन खुश थे
फिर  मंजेगे ,
कमरे खुश थे - फिर संवरेगे .
मुंडेरे खुश थी - खूब सजेंगी
पानी खुश था- कोई पीएगा, नहायेगा
हवा खुश थी- कभी जोर से तो कभी धीरे से बहेंगी
दिन, मिनट, घंटे खुश थे - खालीपन ख़त्म हुआ
डिब्बो में राखी दालें, आटा और चावल खुश थे-
नए पकवान पकेंगे
चींटियाँ खुश थी- खूब खाना बिखेरेगा
ऐसी खुशियों की जब बारात सजी
एक सफ़ेद रुई का गोला मेरी गोद में आ गिरा
उस रुई के गोले की दो काली-काली आँखें खुली
और उन्होंने मुझसे पुछा
"माँ तुम खुश हो " I
और
मैंने जाना कि
ख़ुशी क्या होती है I
मैंने अभी उसे ठीक से प्यार भी नहीं किया
दुलार भी नहीं किया
नज़र का टीका भी नहीं किया
कि
वह सफ़ेद खरगोश की तरह
कुलांचे भरती , भाग गयी
छोटा सा बस्ता उठाये , स्कूल .
उसके लौटने तक एक उम्र बीत गयी
और मैंने जाना
इंतज़ार क्या होता है I

कवयित्री -लीना मल्होत्रा

Monday 9 May 2011

प्यार में धोखा खाई लड़की




प्यार में धोखा खाई किसी भी लड़की की
एक ही उम्र होती है,
उलटे पाँव चलने की उम्र!!
वह
दर्द को
उन के गोले की तरह लपेटती है,
और उससे एक ऐसा स्वेटर बुनना चाहती है
जिससे
धोखे की सिहरन को
रोका जा सके मन तक पहुँचने से!

वह 
धोखे को धोखा
दर्द को दर्द
और
दुनिया को दुनिया
मानने से इनकार करती है
वह मुस्कुराती है 

उसे लगता है 
कि
सरहद के पार खड़े उस बर्फ के पहाड़ को
वह अपनी उँगलियों
सिर्फ अपनी उँगलियों की गर्मी से
पिघला सकती है
फिर उँगलियाँ पिघल जाती हैं और सर्द पहाड़ यूँ ही खड़ा रहता है 

वह
रात के दो बजे नहाती है
और खडी रहती है
बालकनी में सुबह होने तक,
किसी को कुछ पता नहीं लगता
सिवाय उस ग्वाले के
जो रोज़ सुबह चार बजे अपनी साइकिल पर निकलता है !

उसका
दृश्य से नाता टूटने लगता है
अब वह चीज़ें देखती है पर कुछ नहीं देखती
शब्द भाषा नहीं ध्वनि मात्र हैं
अब वह चीज़े सुनती है पर कुछ नहीं सुनती
पर कोई नहीं जानता ...

शायद ग्वाला जानता है
शायद रिक्शा वाला जानता है
जिसकी रिक्शा में वह
बेमतलब  घूमी थी पूरा  दिन  और कहीं नहीं गई थी
शायद माँ जानती है
कि उसके पास एक गाँठ है
जिसमें धोखा बंधा रखा है

प्यार में धोखा खाई लड़की
शीशा नहीं देखती
सपने भी नहीं
वह डरती है शीशे में दिखने वाली लड़की से
और सपनो में दिखने वाले लड़के से,
उसे दोनों की मुस्कराहट से नफरत है 
            
वह नफरत करती है
अपने भविष्य से 
उन सब आम बातों से
जो
किसी एक के साथ बांटने से विशेष हो जाती हैं I

प्यार में धोखा खाई लड़की का भविष्य
होता भी क्या है
अतीत के थैले में पड़ा एक खोटा सिक्का
जिसे
वह
अपनी मर्ज़ी से नहीं
वहां खर्च करती है
जहाँ वह चल जाए I

  कवयित्री --लीना मल्होत्रा