Wednesday, 23 November 2011

मैं अज्ञात निर्विकार अकेलापन


तुम  तमाम कोशिशें कर लो

प्यार की टोकरियाँ उपहार में दे दो
ताकि सुगंधों में खो जाऊं
गठबंधन कर दो जिनकी रक्षा में  चुक जाऊं
परिवारों की जलती भट्ठी में झोंक दो
सुकोमल बच्चे पैदा करो  जिनकी निर्द्वंद्व इच्छाएं  जीवन को  नोच डाले
पराजित करो मुझे
ताकि अपमानित हो
बार  बार ढूंढूं  कन्धा  रोने के लिए
उपलब्धियों के टापू बसा दो
ताकि भीड़ की तृष्णा इन  टापूओं पर काट काट कर रोपती रहे मुझे

लाद दो जिम्मेदारियां
नंगी तलवारों से लड़ने की
वक्त से महरूम कर दो
ताकि सोच भी न पाऊँ मैं

लेकिन मैं अज्ञात निर्विकार अकेलापन
बचा  रहूँगा

निर्लिप्त इन सरोकारों से

अपनी ही मिटटी और धूप से होता बड़ा
पलूंगा भीतर

साथ चलूँगा जैसे चांदनी रात में चलता है चाँद
विस्तृत तारों भरा आसमान

मर जाऊंगा चुपचाप अपनी एकनिष्ठा से तुम्हारी देह के लुप्त होने  के बाद
मुझे रोने वाला कोई नही चाहिए

-लीना मल्होत्रा 

22 comments:

Unknown said...

"ताकि भीड़ की तृष्णा इन टापूओं पर काट काट कर रोपती रहे मुझे "
एक अच्छी गंभीर बात कही आपने , बढ़िया

क्षितिज  said...

Bahut khoob Leena ji.

Anonymous said...

निर्विकार में कुछ है
जान नही पा रहे जिसे
क्या है ?
क्यों है
युगों-युगों से,
जन्मों से अज्ञात ?
और कब तक रहेगा
युँ ही अ-प्रकट
रोमांचित करता
सुलाता
जगाता
रहस्यमय ...

ओ ..
दिक् में
दिगन्त तक
सर्वव्यापी
रहस्य....
तुम कब तक रहोगे मुझ पर
अप्रकट
अज्ञात ?

Nidhi said...

behatreen prastuti

Ashok Kumar pandey said...

आपने अपनी एक भाषा और कहन विकसित कर ली है..जो लगातार समृद्ध हो रही है.

हेमा दीक्षित said...

बहुत खूब लीना! वक़्त से महरूम .. शून्य से उठ रही है सशक्त गूंज .. चले चलो ..

सुनील अमर said...

बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति. हमेशा की तरह भावपूर्ण !!

बाबुषा said...

लुट गए ! :-)

Unknown said...

लीना जी की इस कविता में वेदना की जो स्मृति अभिव्यक्त हुई है वह अंततः जीवन की ही अनुभूति है; इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं लगता कि उसका सहज स्वीकार भी लीना जी की कविता में न केवल जिजीविषा का ही एक प्रकार है बल्कि उसे एक सार्थकता भी देता है | यह नहीं कि लीना जी की इस कविता में वेदना के लिए कोई ललक है, लेकिन उसकी स्मृति भी जीवन के हमारे बोध को न केवल प्रामाणिक बल्कि और गहरा भी करती है |

Shoonya Akankshi said...

"लाद दो जिम्मेदारियां
नंगी तलवारों से लड़ने की
वक्त से महरूम कर दो
ताकि सोच भी न पाऊँ मैं

लेकिन मैं अज्ञात निर्विकार अकेलापन
बचा रहूँगा"

लीना जी की यह कविता एक स्त्री की गहन वेदना को व्यक्त करती है | यह अहसास दिलाती है कि औरत को नंगी तलवार से लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है | उसका अस्तित्व केवल मर्द की दुनिया की स्वार्थ पूर्ति के लिए ही है चाहे दिखाने के लिए खुशुबू का उपहार मिले या फिर गाली |

एक शानदार कविता के लिए बधाई जी |
- शून्य आकांक्षी

अपर्णा मनोज said...

हमेशा की तरह . कमाल हो लीना ..

a.k.singh said...

बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति. हमेशा की तरह भावपूर्ण !!

vandana gupta said...

क्या कहूँ लीना जी इस बेमिसाल रचना के लिये………निशब्द हूँ।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-708:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

गंभीर और सुन्दर संवेदनात्मक रचना....
सादर बधाई...

Suman Dubey said...

liina ji namaskaar, bhaavpuurn rachna badhaai

गीता पंडित said...

हमेशा मैंने आपकी लेखनी को पसंद किया है आज भी वैसे ही भाव...

मुस्करा रही हूँ पढकर ...पीड़ा की मुस्कान ....:)

dr narender singh tanwar said...

dil ko chu gayee apki kavita!

कौशल किशोर said...

पढ़ते पढ़ते खो जाने वाली कविता...
सुन्दर रचना...........

मेरा ब्लॉग पढने की लिए इस लिक्क पे आईये...
http://dilkikashmakash.blogspot.com/

कौशल किशोर said...
This comment has been removed by the author.
Anonymous said...

हर एक डूबने वाला ये सोचता है कि मैं
भंवर से बच के निकलता तो पार उतर जाता

बहुत खूब......आप बहुत अच्छा लिखती हैं.....कुछ आग सी है.....न जाने कैसे इतने दिनों आपके ब्लॉग से दूर रहा.....खैर देर आयद दुरुस्त आयद |

आज ही आपको फॉलो कर रहा हूँ ताकि आगे भी साथ बना रहे|

कभी फुर्सत में हमारे ब्लॉग पर भी आयिए- (अरे हाँ भई, सन्डे को भी)

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रविकर said...

मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
आओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
--
बुधवारीय चर्चा मंच