Monday 7 May 2012

मैं उसे कभी ट्रेन तक छोड़ने नही जाती 
ट्रेन की आवाज़ मेरी धडकन में बस जाती है 
उसके बाद जब तक वह लौट नही आता 
मेरा दिल ट्रेन की गति सा चलता है और धडकता है छुक छुक 
मैं बिना उसके साथ गए एक सफर में शामिल हो जाती हूँ 
रात सोते समय भी मेरे बिस्तर पर धूप उतर आती है 
और भागते हुए पेड़ मेरे जीवन की स्थिरता को तोड़ते रहते हैं
तब
सड़कों के किनारे खाली खेतों में वीरान पड़े मंदिरों की तरह मैं अकेली हो जाती हूँ 
इसलिए
जब भी वह शहर से दूर जाता है
मैं उसे स्टेशन के बाहर से छोड़ कर चली आती हूँ
और कई कई दिन तक मुझे लगता है
बस वह सब्जी लेने गया है
या हजामत बनवाने
बस आता ही होगा
भ्रम पालने में वैसे भी हम मनुष्यों का कोई सानी नही