Saturday, 15 October 2011

आदतें


आदतन 
जब पुरुष गुट बनाकर खेलते हैं पत्ते 
स्त्रियाँ धूप में फैला देती हैं पापड बड़ियाँ और अपनी सर्द हड्डियाँ  
जमा  कर लेती हैं धूप अँधेरे में गुम आत्माओं के लिए

 बुन लेती हैं स्वेटर
 धुन लेती हैं रजाइयां
ठिठुरती संवेदनाओ के लिए

मर्द जब तनाव भगाने को सुलगाता है बीडी 
भरता है चिलम 
औरतें  बन जाती हैं खेल के  मैदान की गोदी
बच्चे धमाचौकड़ी लगा चुकते हैं जब
पुचकार कर उन्हें 
करवा देती हैं होम वर्क
 संवार  देती हैं बाल
 गूंथ देती हैं चोटियाँ

आदमी ऊंघते हैं जब थक कर 
स्त्रियाँ सम्हाल लेती हैं उनकी दुकाने
पुरुषों ने फेकने को निकली थी जो नकारा चीज़े
बेच देती हैं वे उन अपने जैसी लगने वाली आत्मीय चीजों को
कुशलता से समझा देती हैं उनकी  उपयोगिता ग्राहकों को    

आदमी के घर लौटने से पहले 
बुहार कर चमका  देती हैं पृथ्वी
फूंक मार कर उड़ा देती हैं धूल दूर अन्तरिक्ष में 
ठिकाने लगा देती हैं बेतरतीबी से बिखरी चीज़ें
अंधेरों को कर देती हैं  कोठरियों में बंद
परोस देती हैं गर्म खाना 

थका मांदा  पुरुष पटियाला की खुमारी में सो जाता है जब 
बचे खुचे समय में सुलगते सपनो को भर देती हैं इस्त्री में 
और पुरुषों की जिंदगी में बिछी सलवटों को
मुलायम चमकदार बना देती हैं..
सोते सोते
सुबह के लिए सपनो में सब्जी काटती रहती हैं जब उनकी उंगलियाँ
आँखे जुदा होकर देह से
समानांतर जीवन जी आती हैं
पृथ्वी जैसे लगने वाले किसी और ग्रह पर

- लीना मल्होत्रा 

30 comments:

स्वप्निल तिवारी said...

सचमुच ये सब कितना सच है .... बहुत अच्छी लगी आपकी यह कविता

आशुतोष कुमार said...

लाइक !-:)

अरुण अवध said...

स्त्री पुरुष की बड़ी सुन्दर तुलना प्रस्तुत हुई है लीना जी की इस सुन्दर कविता में ! उन्हें बधाई !

Ashish Pandey "Raj" said...

थका मांदा पुरुष पटियाला की खुमारी में
सो जाता है जब
बचे खुचे समय में
सुलगते सपनो को भर देती हैं इस्त्री में
और पुरुषों की जिंदगी में
बिछी सलवटों को
मुलायम चमकदार बना देती हैं...
सच है
स्त्री मन तब तक करता है
समझौता और संघर्ष
जब तलक
बची रहती है एक
किरण आशा की ..आभार ...

Unknown said...

आदमी के घर लौटने से पहले
बुहार कर चमका देती हैं पृथ्वी
फूंक मार कर उड़ा देती हैं धूल दूर अन्तरिक्ष में
ठिकाने लगा देती हैं बेतरतीबी से बिखरी चीज़ें
अंधेरों को कर देती हैं कोठरियों में बंद
परोस देती हैं गर्म खाना...खूबसूरत जज़बात का गहरा समन्दर....
** nareshvidhyarthi.blogspot.com

avanti singh said...
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avanti singh said...

khub! bahut khub!.....bahut hi achi rachna hai,aur aap ka blog bhi bahut pyara sa hai...

ranjeer thakur said...

बहुत सुन्दर !!!

ranjeet thakur said...

बहुत सुन्दर !!!

AAGOONCH said...

shram jeevee stree-purush ke karya-vyaparon evam aatmeeya sambandhon par rachee gayee aik sarthak bimbatmak kavita.Badhai.

Meethesh Nirmohi,Jodhpur[rajasthan].

Vipul said...

पृथ्वी जैसे लगने वाले किसी और ग्रह पर - निस्संदेह लीनाजी की कविता!! स्त्री पक्ष को प्रखरता से सामने लाती और पुरुष के सामंतवादी रूप को दिखाती कविता! बहुत शालीनता से ऐसे पुरुषों को चोट पहुंचाती सुन्दर रचना के लिए बधाई!

Unknown said...

एक घनघोर मर्दवादी समय में घर-गृहस्‍थी से लेकर मर्द की दुकानों तक को संभालने वाली स्‍त्री का जीवन कितनी किस्‍म की आत्‍मीय और अनिवार्य व्‍यस्‍तताओं में बीतता है, इसे बिना किसी लागलपेट के अदृश्‍य संवेदनाओं के तार में पिरोते हुए लीना इस तरह प्रस्‍तुत करती हैं कि उन स्त्रियों के प्रति पाठक का मन नतमस्‍तक हो जाता है। वे इसी पृथ्‍वी पर रहती हैं, लेकिन हमारे निर्मम समय ने उनका जीवन ऐसा बना दिया है कि उन्‍हें नींद में ही किसी अन्‍य ग्रह पर अपने हिस्‍से का जीवन जीना पड़ता है। बहुत ही मार्मिक है इस कविता से गुजरना। बधाई लीना जी।

vijay kumar sappatti said...

amazing poem...ek seedhi aur sacchi kavita .. badhayi ho ..

meri kavita - phool bartish par aapka swagat hai ...--

http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

vijay

omiyk said...

Aap subject bhi naya hai, aur shabdon ka chayan bhi. bahut achha lagaa, padh kar. Streeyon ki is life style ke baare me sab jaante hain, lekin kabhi charchaa nhn karte. Bahut 2 badhai,

शेरघाटी said...

पुरुष वर्चस्व की बेला में स्त्री संवेदना की ऐसी फुलवारियां बेहद सुकून बख्श हैं.आपके लहजे की आक्रामकता ख़ूबसूरती के साथ चुभन देती है. शहरोज़

Prem Prakash said...

आदमी के घर लौटने से पहले
बुहार कर चमका देती हैं पृथ्वी
फूंक मार कर उड़ा देती हैं धूल दूर अन्तरिक्ष में
ठिकाने लगा देती हैं बेतरतीबी से बिखरी चीज़ें
अंधेरों को कर देती हैं कोठरियों में बंद
परोस देती हैं गर्म खाना...बधाई लीना....बहुत सुन्दर कविता !

arun dev said...

आपकी अच्छी कविताओं की कड़ी में एक और कविता.
स्त्री -पुरुष के लिए अनेकार्थकता का बेचैन करने वाला चित्रण.

neera said...

औरत की नियति, व्यथा और जीवन का सम्पूर्ण चिंत्रण..

sanat said...
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sanat said...

बढ़िया!
सघन अनुभूति की कविता है..यह सघनता उस द्वन्द में आकार लेती है जो सहानुभूति से प्रशंसा तक की यात्रा के संश्लेषण और पुनः बरास्ते उसके निषेध उसे एक की और सब की स्वानुभूति में रूपांतरित करता चलता है..ऐसी विकट स्थितियां, जब औरतों को बेच देना पड़ता है 'उन अपने जैसी लगने वाली आत्मीय चीजों को और पूरी 'कुशलता से समझाना पड़ता हैं उनकी उपयोगिता ग्राहकों को', ही उस विराट स्वप्न को जन्म दे सकती हैं जिसमे 'आँखे जुदा होकर देह से' या देह जुदा होकर दिक्-काल से समानांतर जीवन जी आती है'..जाहिर है कि पृथ्वी जैसा लगने वाला कोई और ग्रह मात्र अवचेतन की निर्बाध उड़ान भर नहीं है और न ही किसी अधिभौतिक संसार में पलायन..वह एक बस्तुगत यथार्थ है, एक कवि सत्य भी और जादुई भी..

dr padma sharma said...

purush sattatmak samaj me stri ke bina purush ki satta adhuri he. wah ghar hi nahi bahar k kam me hath bantakar purush ka sahyog karti he "striyan dhoop me fela deti hen ...." panktiyan achchhi lagin

Dr.SatinderParkashNanda' Aas' said...

'God takes away the minds of poets,and uses them as his ministers' its very true,sister really you are working like a minister in this poem,very progressive and existentialist attitude.-Dr.Satanyder Nanda 'Aas'
satindernanda2yahoo.com

Dr.SatinderParkashNanda' Aas' said...

'God takes away the minds of poets,and uses them as his ministers.'Its very true sister,very progressive and existentialist attitude,fine poem.
Dr.SatinderParkash Nanda 'Aas'
bright3stars@gmail.com

vattsala pandey said...

यही स्त्रीत्व का असली सौंदर्य है, जो किस तरह रुखी कठोर दुनिया को भी खूबसूरत बना देती है. लीना जी ने स्त्री को उम्मीद की नोक पर हीरे की कनी स रख दिया. जो अपने चारों ओर के कांच को काटने की सामर्थ्य रखती है और पुरुष फिर भी उससे अजनबी ही रह जाता है.

HEMANT RATHORE said...

bahut bahut sadhuvad!!
bas jaise aankhon ke samne sab sakar ho uthaa!!!

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...





आदरणीया लीना मल्होत्रा जी
सस्नेहाभिवादन !

# आभारी है पूरा पुरुष समाज आप स्त्रियों का !
आपके दम से हम हैं अभी तक… !!
:)

गंभीरता से कहूं तो इस श्रेष्ठ रचना की प्रतिक्रिया के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं … सच !


बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Mohammed Rafiq Pathan said...
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Mohammed Rafiq Pathan said...

आपकी काव्य रचना जीतनी अर्थ परख और सरल है उतनी ही शब्दों में समुद्र सी गहराई है | जो आम मानस के दिलोदिमाग पर एक अमित छाप छोडती है.. आपका काव्य रचना संसार जरुर साहित्य के क्षेत्र नए आयाम तय करेगा | ये हमारी दुआ है |

दीपिका रानी said...

बहुत सार्थक कविता.. शब्द नहीं हैं

Nidhi said...

कविता में गाम्भीर्य है परन्तु तब भी आराम से वो संवेदना के स्तर तक पहुंचती है