Monday 7 May 2012

मैं उसे कभी ट्रेन तक छोड़ने नही जाती 
ट्रेन की आवाज़ मेरी धडकन में बस जाती है 
उसके बाद जब तक वह लौट नही आता 
मेरा दिल ट्रेन की गति सा चलता है और धडकता है छुक छुक 
मैं बिना उसके साथ गए एक सफर में शामिल हो जाती हूँ 
रात सोते समय भी मेरे बिस्तर पर धूप उतर आती है 
और भागते हुए पेड़ मेरे जीवन की स्थिरता को तोड़ते रहते हैं
तब
सड़कों के किनारे खाली खेतों में वीरान पड़े मंदिरों की तरह मैं अकेली हो जाती हूँ 
इसलिए
जब भी वह शहर से दूर जाता है
मैं उसे स्टेशन के बाहर से छोड़ कर चली आती हूँ
और कई कई दिन तक मुझे लगता है
बस वह सब्जी लेने गया है
या हजामत बनवाने
बस आता ही होगा
भ्रम पालने में वैसे भी हम मनुष्यों का कोई सानी नही

Saturday 4 February 2012

एक बदले की मौत

पता नही क्यों छिपाना  चाहती हूँ अब 
कि कोई  रिश्ता नही है मेरा उससे..

मैं कुछ डरे हुए खंडहरों   में भटक गई हूँ 
और पेज नम्बर निन्यानवे से मेरे हाथ आया है
वर्षों  से कर्फ्यू की  दहशत का मारा
गुलाब एक  सूखा हुआ 
चिंदी चिंदी अनाथ  टापुओं में बंटे शब्द..
जिनके अर्थ मेरी मुस्कराहट की पगडंडियों पर खो जाते थे .
वह 
पागल पेड़ की जिद्दी छाया सा 
टिका रहता था  ठीक उसके नीचे

हवा को थक कर बदल ही लेना पड़ता था रास्ता
गुज़र नही पाती थी हम दोनों के बीच से

याद है कितना कुछ मुझे 
बस याद नही कहाँ रख छोड़ी है बदले की कटार.

रख कर भूल गई हूँ कहीं
कहाँ है ?
ढूंढती हूँ हर उस जगह
जहाँ नही रखती कोई कीमती सामान.
तुलाई  के नीचे बस छिछोरे  बिजली पानी के बिल हैं 
दाल के डिब्बों में बच्चों की फीस के लिए छिपा कर रखी पूँजी  , 
मनौतियों की गुत्थी में दुआओं के  इंतज़ार में सोये पुराने नोट 
गर्म कोट की जेब में लुटेरी धूप निठ्ठली   बैठी है सर्दियों की इंतज़ार में
नही कहीं नही है धार
न बदले की वो कटार
यही है  मेरी अंतिम हार .

-लीना मल्होत्रा