Monday 16 May 2011

मैं व्यस्त हूँ


दिनचर्या के कई इतिहास रचती हूँ मैं
खाना पकाती,
रोटी फुलाती, परचून से सौदा लाती, 
बस में दफ्तर जाती
क्या तुम जानते हो 
इन्ही स्वांगो के बीच 
फूल कर कुप्पा हुई एक रोटी रतजगा करती है प्रतीक्षा में  
बासी होने तक

घर का बुहारा हुआ सबसे सफेदपोश कोना 
वसंत के रंग बसाता है पतझड़ आने तक,

वह बस जिसमे मै अकेली हूँ 
और तुम्हे
उस जंगल से जिसका नक्शा सिर्फ मेरे पास है
निकाल कर रख लिया है मैंने बगल वाली सीट पर,

भूल आई हूँ मैं  तुम्हे उसी बस में
और मुझे नहीं मालूम  की उस बस का आखिरी स्टॉप  कौन सा है.
ठीक उसी समय 
कल्पनाओं से बेदखल हुए वीतरागी पतझड़ के सूखे हुए पत्ते,
दूर तक उड़ते हुए उस बस का पीछा करते है,

विचित्रताओं से भरी हुई इस दुनिया में 
जब तुम्हारी खिड़की पर पौ फटती है
और तुम सुबह की पहली चाय पीते हो 
तो अखबार की कोई खबर पढ़ कर तुम्हे ऐसा लगता है की इस दुनिया में सब कुछ संभव है 
कि
अचानक किसी मोड़ पर  तुम मुझसे टकरा भी सकते हो 
क्या तुम जोर से रिहर्सल करते हो 
अपने प्रश्न की 
कैसी हो तुम? 

क्या तुम जानते हो
एक अरसे से बंदी हो तुम मेरे मन में
और सांस लेने के लिए भी तुम्हे मेरी इजाज़त लेनी पड़ती है
और जब कभी 
मुझे लगता है कि 
तुम इस घुटन में कहीं मर तो नहीं गए 
तो  मै घबरा कर अचकचा के उठती हूँ 
तब मेरे बच्चे मुझे कितनी हैरत से देखते हैं. 

अपने  व्यस्ततम क्षणों में 
जब मै दिनचर्या के कई इतिहास  रचती हूँ 
कपडे धोती हूँ 
 इस्त्री करती हूँ 
बच्चों को स्कूल छोड़ने जाती हूँ 
और वह सब उपक्रम करती हूँ 
जो हम तब करते हैं 
जब करने को कुछ नहीं होता 
तब आकाश का चितेरा पूरी मशक्कत करता है
कि 
महाशून्य में डोलती यह धरती
 कहीं सरक न जाए उसके आगोश से.
-लीना मल्होत्रा 

15 comments:

Anonymous said...

Its very good!

Rajeev said...

Liked ....

गीता पंडित said...

नम नयनों से पढ़ डाली है एक-एक पाती
वो भी जो तुमने लिखी नहीं मेरे साथी ||

आह !!!!

काश ! ये मन ना होता...मन होता तो नेह ना होता ... नेह होता तो पीड़ा ना होती ...यही पीड़ा तो जीवन का हास करती है...

मर्मान्तक रचना...
बधाई आपको..

मनोज पटेल said...

अच्छी कविता...

Ambar said...

एक अरसे से बंदी हो तुम मेरे मन में

Good One!!!

anju said...

itni vyast ho ki roti bhi prateeksha karti hai, ghar ka sabse sundar kona kona bhi ki shayad jo barso se nahi aaye vo aa jaayenge, bahut kuchh kahti hai ye kavita . anju

Ashok Kumar pandey said...

स्त्री श्रम का शोषण इस समाज का जघन्यतम अपराध है..आपने उसे बखूबी उकेरा है.

Kumar Mukul said...

acchi lagi aapki yah kavita...baki bhi padhunga...

सुशील कृष्ण गोरे said...

स्त्री-मन की प्रौढ़ अभिव्यक्ति। आपकी कविता में एक स्थायी निजपन है जो कविता को कम्यूनिकेट करने में अपने ढंग से शामिल रहता है। कविता एक टेक पर चलती रहती है; लेकिन अपनी बेहतर और प्रभावी चित्रों के कारण पाठक से लगातार अपना पाठ करवाती है। उसमें कुछ भी ठुँसा हुआ-सा नहीं है। एक प्रवाह पर तिरती कविता है। विचार-बहुल या शब्द-बहुल शैली के प्रचलित दबावों से मुक्त होने के कारण आपकी कविताएँ नयी आभा के साथ सामने आ रही हैं।

ढेर-सारी बधाइयाँ......साथ ही दिल से दुआ कि आपकी कलम कविताओं से हमेशा रौशन रहे।

मौन said...

achhi kavita

मौन said...

achhi kavita

संजय भास्‍कर said...

अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!

संजय भास्‍कर said...

वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.

Anonymous said...

अनुभूति की धीमी धीमी किन्तु गहरी आंच में पक कर तैयार हो रहा है लीना का एक कवि-समय, और इस संसार में कुछ "कल्पनाओं से बेदखल हुए वीतरागी पतझड़ के सूखे...पत्ते" एक अलग ध्वनि और नाद की अनुगूंज निर्मित करते हैं... वंचना का मार्मिक स्पर्श संवेदना की तहों में रेशे रेशे बिखरा हुआ है...
-सुनील श्रीवास्तव

आशुतोष कुमार said...

बहुत खूब लीना . मुश्किल तक पहुँच सकीं आप .

''क्या तुम जानते हो
एक अरसे से बंदी हो तुम मेरे मन में
और सांस लेने के लिए भी तुम्हे मेरी इजाज़त लेनी पड़ती है
और जब कभी
मुझे लगता है कि
तुम इस घुटन में कहीं मर तो नहीं गए
तो मै घबरा कर अचकचा के उठती हूँ
तब मेरे बच्चे मुझे कितनी हैरत से देखते हैं. ''