Wednesday, 11 May 2011

ऐसी खुशियों की जब बारात सजी


उस आँगन में

कोई आने वाला था
जहां बरगद ने सौ बरस तपस्या की थी I

बरगद खुश था उसके हर पत्ते ने दुआ में हाथ उठाये
खूब आशीर्वाद बरसाए
घर के सभी चमकदार बर्तन खुश थे
फिर  मंजेगे ,
कमरे खुश थे - फिर संवरेगे .
मुंडेरे खुश थी - खूब सजेंगी
पानी खुश था- कोई पीएगा, नहायेगा
हवा खुश थी- कभी जोर से तो कभी धीरे से बहेंगी
दिन, मिनट, घंटे खुश थे - खालीपन ख़त्म हुआ
डिब्बो में राखी दालें, आटा और चावल खुश थे-
नए पकवान पकेंगे
चींटियाँ खुश थी- खूब खाना बिखेरेगा
ऐसी खुशियों की जब बारात सजी
एक सफ़ेद रुई का गोला मेरी गोद में आ गिरा
उस रुई के गोले की दो काली-काली आँखें खुली
और उन्होंने मुझसे पुछा
"माँ तुम खुश हो " I
और
मैंने जाना कि
ख़ुशी क्या होती है I
मैंने अभी उसे ठीक से प्यार भी नहीं किया
दुलार भी नहीं किया
नज़र का टीका भी नहीं किया
कि
वह सफ़ेद खरगोश की तरह
कुलांचे भरती , भाग गयी
छोटा सा बस्ता उठाये , स्कूल .
उसके लौटने तक एक उम्र बीत गयी
और मैंने जाना
इंतज़ार क्या होता है I

कवयित्री -लीना मल्होत्रा

5 comments:

anita said...

nice

Anonymous said...

maa aisa hi sochti hai har maa.

Anonymous said...

बेहद आवेगपूर्वक रचे धरातल पर कहीं दूर छूटे हुवे समय की उद्दाम स्मृति की बिम्बधर्मी उपस्थिति में मुखर होता हुआ सांगीतिक नाद सृजन की शक्ति को रेखांकित करता है ... सुन्दर.
-सुनील श्रीवास्तव

स्वप्निल तिवारी said...

koi itni sadharan bhasha men....binaye naye roopak upmaan gadhe chamatkar kar dega....socha nahi tha...bahut sundar kavita...

Nidhi said...

सुंदर!!अ