Sunday 8 May 2011

माँ




जब मैं 
सुई में धागा नहीं डाल पाती 
तुम्हारी उंगलियों में चुभी सुइयों का दर्द बींध देता है सीना 
जब दीवार पर सीलन उतर आती है
तुम्हारी सब चिंताए 
मेरी आँखों की नमी में उतर आती हैं  माँ I
जब मेरी बेटी पलटकर उत्तर देती है 
खुद से शर्मिंदा हो जाती हूँ मैं I
और 
समझ जाती हूँ 
कैसा महसूस किया होगा तुमने   माँ I

शाम को चाहती हूँ
हर रोज़ करूँ 
गायत्री मन्त्र का पाठ
और विराम लूं रुक कर उस जगह
जहाँ रुक कर तुम सांस लेती थी 
कई संकेत,
तुम्हारी कई भंगिमाएं ,
तुम्हारा पर्याय  बन जाते है माँ -
कई बार जब शाम को बत्ती जलाती हूँ 
और प्रणाम करती हूँ उजाले को
तो मुझे लगता है वो मै नहीं तुम हो माँ I

मै अपना एक स्पर्श तुम तक पहुँचाना चाहती हूँ I
अँधेरे में रात को कई बार उठती हूँ 
तो सोचती हूँ 
माँ से साक्षात्कार हो पाता
बस एक बार 
पूछ सकती कैसी हो माँ 
तुम नहीं आती 
 उत्तर चला आता है  
"मै ठीक हूँ बेटी अपना ध्यान रखना"I

आँखे मूँद लेती हूँ 
और देखती हूँ उस प्रक्रिया को
 जो 
मुझे तुम में रूपांतरित कर रही हैI
और तुम्हारे न रहने पर
मै सोचने लगी हूँ तुम बन के  
मै बदल रही हूँ तुममे माँ I
सिर्फ स्मृति में नहीं माँ
 जीवित हो तुम 
मेरे हाव- भाव में 
मेरी सोच में 
मुझमें I

कवयित्री  लीना मल्होत्रा

4 comments:

Vipul shukla said...

Maa par likhi sabhi kavitaye maa kee tarah hi khoobsurat hua karti hain.. Bhaavpoorn kavita. Sundar smratiyo ko sundar shabdo ka sath mila hai. Badhaai.

अजेय said...

(माँ की अंतिम यात्रा से लौटने पर)

वह जब थी
तो कुछ इस तरह थी
जैसे कोई भी बीमार बुढ़िया होती है
शहर के किसी भी घर में
अपने दिन गिनती।

वह जब थी
उस शहर और घर को
कोई ख़बर न थी
कि दर्द और संघर्ष की
अपनी दुनिया में
वह किस कदर अकेली थी ।

कहाँ शामिल था
ख़ुद मैं भी
उस तरह से
उसके होने में
जिस तरह से इस अंतिम यात्रा में हूं ?


आज जब वह जा रही है
तो रोता है घर
स्तब्ध ह्आ शहर
खड़ा हो गया है कोई दोनो हाथ जोड़े
दुकान में सरक गया है कोई मुँह फेर कर
भीड़ ने रास्ता दे दिया है उसे
ट्रैफिक थम गया है
गाड़ियाँ भारी-भरकम अपनी गर्वीली गुर्राहट बंद कर
एक तरफ हो गई हैं दो पल के लिए
चौराहे पर
वर्दीधारी उस सिपाही ने भी
अदब से ठोक दिया है सलाम।
आज जब जा रही है माँ
तो लगने लगा है सहसा
मुझे
इस घर को
और पूरे शहर को
कि वह थी... और अब नहीं रही।
.....ajey.

Anonymous said...

अनुभूति के स्तर पर बेहद पैनी और धारदार संवेदना...माँ के समय के स्पर्श, ध्वनि और ऊष्मा को स्वयं में तदाकार करती हुई... "मै सोचने लगी हूँ तुम बन के /मै बदल रही हूँ तुममे माँ..." सृजन की शक्ति को रेखांकित करती हुई कविता...
-सुनील श्रीवास्तव

Anant Alok said...

तुम नहीं आती उत्तर चला आता है में ठीक हूँ अपना ध्यान रखना .....अस्मिता जी आपने तो दिवंगत माँ की याद दिला दृग सजल कर दिए |