Tuesday, 3 May 2011

उसे भी तेरी तरह उंचाइयां पसंद थी

उसे भी तेरी तरह उंचाइयां पसंद थी
तू अब स्तब्ध क्यों है पहाड़ ?
तेरे अहंकार की गठरी
तेरे प्रेम से बड़ी थी
तूने अपने कटाव
अपनी ढलान प्रस्तुत कर दी
बह जाने दिया नदी को काल के गर्त में समां जाने के लिए

एक आवरण की तरह लपेट भी सकता था तू उसे
तेरे इर्द गिर्द घूमती रहती
उसे भी तेरी तरह उंचाइयां पसंद थी

अधूरे तिलमिलाते प्रेम से उपजे तेरे श्राप को
तू थाम भी सकता था
अपनी गर्वीली चोटियों के गर्भ में दबा देता कहीं
जला देता ऋषियों के तपों से उपजी धूनी में
तेरी छाती तो बहुत बड़ी थी
झेल लेता वो आघात
पी जाता अपना क्रंदन


पर
किसी संकुचित सामंती पुरुष की तरह
तूने रचा षड्यंत्र ,
-तेरी सिद्धियों को परखने की कसौटी नहीं -
उसे घुटनों पे लाने के
तेरे प्रयास का हिस्सा था वो श्राप
तू जलता था पहाड़
तुझे लगा की उसका वेग तेरी ढलान से उपजा है
और उसने तेरा शोषण किया है
और वह दंड की अधिकारिणी है


पर उसने
सपनो की चमकदार तलवारों से कटी
धूल धूसरित खंडित वास्तविकता को
स्वीकार कर लिया है !

अपनी यात्रा के अंत तक
शापित नदी
ढोएगी पिंडदान
और
उन मृत देहों की अस्थियों के साथ -साथ बहती कराहती आत्माओं को
देगी दिलासा
कि

तिलांजलि स्वीकार करो

और अब तू स्तब्ध है पहाड़ !
कि बह क्यों गई शालीनता से
क्यों नहीं देखा
उसने
पीछे मुडके एक भी बार...

लीना मल्होत्रा

4 comments:

antara said...

beautiful poem. it says a lot....... the words draw a picture of a dignified woman thanks :)

lava said...

its very touching... awesome !

Ashish Bihani said...

"pee jaata apna krandan"...awesome....
btw,i once gave a thought about the last part,was not successful in writing a poem though.....
this poem is nice

संजय भास्‍कर said...

आह बहुत खूबसूरत कविता लिखी मनो दिल निचोड़ कर रख दिया हो.