Tuesday 6 September 2011

ओ बहुरूपिये पुरुष !

पति 
एक दिन 
तुम्हारा ही अनुगमन करते हुए
मैं उन घटाटोप अँधेरे रास्तों  पर भटक गई
निष्ठा के गहरे गह्वर  में छिपे आकर्षण के सांप ने मुझे भी डस लिया था 
उसके  विष का गुणधर्म  वैसा ही था 
जो पति पत्नी के बीच विरक्ति पैदा कर दे
इतनी 
कि दोनों एक दूसरे के मरने की कामना करने लगें.
तभी जान पाई मैं  कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का 
और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है
और तुम क्यों और कहाँ चले जाते हो बार बार मुझे छोड़कर ..

मैं तुम्हारे बच्चो की माँ थी 
कुल बढ़ाने वाली बेल
और अर्धांगिनी 
तुम लौट आये भीगे नैनों से हाथ जोड़ खड़े रहे द्वार
तुम जानते थे तुम्हारा लौटना मेरे लिए वरदान होगा
और मैं इसी की प्रतीक्षा में खड़ी मिलूंगी

मेरे और तुम्हारे बीच
फन फैलाये खड़ा था कालिया नाग
और इस बार
मैं चख चुकी थी स्वाद उसके विष का 

यह जानने के  बाद 
तुम
थे पशु ...
मै वैश्या दुराचारिणी ..

ओ प्रेमी!
भटकते हुए जब मैं पहुंची तुम्हारे द्वार

तुमने फेंका  फंदा
वृन्दावन की संकरी  गलियों के मोहपाश का
जिनकी आत्मीयता में  खोकर
मैंने  सपनो के  निधिवन को बस जाने दिया था घर की देहरी के बाहर
गर्वीली नई  धरती पर प्यार  की  फसलों का वैभव  फूट रहा था 
तुमने कहा
राधा !
राधा ही  हो तुम..
और
प्रेम पाप नही..

जब जब
पति से प्रेमी बनता है  पुरुष
पाप पुण्य की परिभाषा बदल जाती है
देह आत्मा
और 
स्त्री 
वैश्या से राधा बन जाती है..

-लीना मल्होत्रा






35 comments:

Unknown said...

Laajawaab.

के सी said...

बहुत सुंदर कविता.

के सी said...

बहुत सुंदर कविता.

सुनील अमर said...

शायद श्रृष्टि की शुरुआत से ही ऐसा होता रहा है.जब --''..... नीचे जल था, ऊपर जल था, एक तरल था एक सघन ........'' का युग था तब से ! तब भी पुरुष स्त्री को माँ बना देने के बाद भागता-फिरता था और घायल हो जाने पर फिर उसी स्त्री के पास लौट आने को अभिशप्त होता था.
बहुत गहरे भावों को लेकर लीना जी आपने नर-नारी के प्राकृतिक संबंधों को विवेचित किया है.
लेकिन पुरुष को पशु कहने के बाद आपने स्त्री को वेश्या क्यों कहा ? क्या दोनों के कर्म एक जैसे ही नही थे?
आपकी बात से सहमत नही कि ''...जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है''
क्या इसमें स्त्री शामिल नही होती ?

बाबुषा said...

Sundar hai Di..

ramji yadav said...

yah ek shandar kavita hai . main kaviyatri ko badhai deta hoon ki vah lagatar achchha likh rahi hai jise padhakar pathak bina vichlit huye nahin rah sakta.is kavita me sanp ka adbhut bimb hai.lekin stree ki ek aisi hook to saaf jhalkati hai jo patni ki bhoomika ke karan thagi jati hai. yah kavita do manveeya pravrittiyon ki ek aisi jhanki prastut karti hai jo apni jatilta ke baavjood saaf taur par male dominance ko ek phenomenon dhang se pesh karti hai.

अंजू शर्मा said...

sunder imandar aur sahsik abhivyakti hetu badhai leena......

arun dev said...

yah kavita mujhe achhi lagi. pati aur premi ke beech bhumikaon kii adala badli aur samaj men prem ke dohare mapdand par yah kavita talkh bayan ki tarh hai... stri kii peeda men guntha huaa .

आशुतोष कुमार said...

कविता की अंतिम पंक्तियाँ प्रेम और दाम्पत्य के पाखण्ड को एक झटके में उघाड़ देती हैं. यह दिखाते हुए कि पाप और पुण्य की परिभाषाएं बदलने की चाभी आखिर पुरुष के हाथ में ही होती हैं. गहरी मार करने वाला व्यंग्य , विचारशीलता और सवालों की टंकार .जैसे वर्ग विभाजित समाज में लोकतंत्र एक पाखण्ड है , वैसे ही लिंग विभाजित समाज में प्रेम!

मोहन श्रोत्रिय said...

'वेश्या' और 'राधा' का विपर्यय आज के समाज में पल रहे/ बढ़ रहे दोहरेपन पर तीखा व्यंग्य है. तल्खी के बावजूद या संभवतया उसी की वजह से कविता झकझोरती है, अभिव्यक्ति की साहसिकता को भी दर्शाती है. बेहद प्रभावित करती है यह कविता 'कहन' के नयेपन और खुलेपन की ताक़त पर, जैसे की भाषा की ताज़गी के बल पर भी.

गीता पंडित said...

जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है

देह आत्मा
और
स्त्री
वैश्या से राधा बन जाती है..


पति का प्रेमी रूप सहज नहीं और राधा बनने की आस में उम्र निकल जाती है लेकिन जो बन गयी उसका क्या वो तो दीवानी मीरा हो जाती है....बहुत खूब...लीना ....लिखती रहें...

सस्नेह
गीता

महेंद्र मिश्र said...

पत्नी एक सम्बन्ध है, वेश्या भी, पति भी. स्त्री व्यक्ति है पुरुष भी. प्रेम बाद्न्हे तो बंधे व्यक्तियों को. लेकिन फ़िर प्रेम तो मुक्त करता है. अजीब उहा पोह है.
खैर बहुत अच्छी लगी आपकी रचना. बहुत दिनों बाद एक ऐसा लेखक मिला जिसे पढ़ने पर महसूस होता है कि पीछे गहन चिंतन है. धन्यवाद!

neera said...

सत्य को आईने में उतारती सशक्त कविता!

Vipul said...

खुद की ही शनाख्त करवाती कविता! सब ढूंढ सकते हैं अपने आप को! क्या स्त्री क्या पुरुष, रिश्तो के चेहरे बदलने में सबकी मिलीजुली भूमिका होती है! हाँ पुरुष अक्सर पहल करते हैं! साहसिक रचना के लिए हार्दिक बधाई!

Unknown said...

लीना की कविताओं को पढ़ने के बाद कुछ भी कहना बेईमानी सा है ,मुझे न जाने क्यूँ लगता है लीना ने स्त्री मनोवज्ञान का कविताओं में जिस कदर प्रयोग किया है |वो प्रयोग उने सिमोन द बोआवर की कतार में ला खड़ा करते हैं |

Pratibha Katiyar said...

bahut sundar Leena...ekdam kadak sach!

Ashish Pandey "Raj" said...

बहुत कुछ कहना चाहो और कुछ भी ना कह सको तो कहा जा सकता है बस एक शब्द आभार....

अजेय said...

टिप्स मिल रहीं हैं, आभार !

Ashok Kumar pandey said...

लीना...यह कविता मैंने स्वतन्त्र रूप से पढ़ी. हिन्दी में स्त्री विमर्श के नाम पर जिस तरह पुरुष स्वछंदता को दर्ज किया गया है, यह कविता उसका सशक्त प्रतिकार करती है. इस रूप में ताज़ा भी है और प्रभावी भी. शेष मित्रों ने कह दिया है...बधाई.

Mahesh Chandra Punetha said...

purush ke chhadma ko bevaki se vyakt karati hui lajabab kavita.....ye panktiyan to hila kar rakh deti hain...जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है

देह आत्मा
और
स्त्री
वैश्या से राधा बन जाती है..

जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है

देह आत्मा
और
स्त्री
वैश्या से राधा बन जाती है..bahar jisko radha kahata hai ghar main vahi manak badal jate hain....badhai.

केवल राम said...

जब जब
पति से प्रेमी बनता है पुरुष
पाप पुन्य की परिभाषा बदल जाती है
देह आत्मा
और
स्त्री
वैश्या से राधा बन जाती है..

इन पंक्तियों की जितनी व्याख्या और तारीफ की जाये कम है ...पुरे चित्र को आपने एकदम स्पष्ट कर दिया आपका आभार

Sunil Kumar said...

इस रचना के भाव हिंदी फिल्म अर्थ से कुछ कुछ मिलते है एक नया प्रयोग अच्छा लगा......

रीनू तलवाड़ said...

बहुत सुन्दर...राधा नहीं, मीरा भी बन जाती है...जो भी बन जाए, मगर प्रेम में स्वयं के पास आ जाये..

Patali-The-Village said...

साहसिक रचना के लिए हार्दिक बधाई|

संजय भास्‍कर said...

वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब

tips hindi me said...

लीना जी
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगसपाट डाट काम" के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|

सहज समाधि आश्रम said...

very very nice post lina ji
thanx

Prem Prakash said...

...bahut bebaak aur sunder likha hai apna...BDHAI ke taur pr ya panktian swekaraen...

प्यार को रोक नहीं पाना
एहसास की सिहरन जागते ही
तकिया-रजाई हो जाना
महज समय के दोशाले में लिपटी
खरगोशी गरमाहट नहीं
समय के सबसे तेज साफ्टवेयर पर
डाउनलोड किया गया एप्लीकेशन भी है...!

अबला को
बला की संभावनाओं से भर देना
आजादी के नाम पर की गई
मालफंक्शनिंग नहीं तो और क्या है...!
http://angikaa.blogspot.com/

Maheshwari kaneri said...

एक कटु सच का सामना करवा दिया लीला जी .बहुत सुन्दर....
'अभिव्यंजना' में आप का इंतजार है..धन्यवाद

Kunwar Kusumesh said...

बड़ा धारदार लेखन है आपका.
पहली बार पढ़ा आपको.
लेखन में जोश अच्छा लगा.

Anonymous said...

आज आपके ब्लॉग पर आ गया...
जब दो मनुष्य प्रेमी बनते हैं, तो उनके बीच केवल उनके प्रेम का एक अछूता संसार है, अनुभूति की खुशबू और सम्वेदना की आंच से भरा... वे हैं आपकी कविता के कृष्ण और राधा ...
जब दो मनुष्य पति-पत्नी होते हैं, तो साथ जिये जा रहे सामाजिक समय का बहुत सा कबाड या झंखाड भी दोनों के बीच के एक साझे संसार में जमा हो जाता है और उस कबाड से होते हुए एक-दूसरे की सम्वेदना तक पहुंचने में दृष्टि बदल चुकी होती है... आपकी कविता का बहरूपिया पुरुष और वेश्या नारी...
पति-पत्नी स्वरूप एक सामाजिक जीवन का खण्ड है, जबकि प्रेमी-प्रेमिका मानसिक-आत्मिक वैयक्तिकता का हिस्सा हैं... इन दोनों स्वरूपों का आपस में तुलना का धरातल नहीं है. ये दोनों स्वरूप एक-दूसरे में गम्य भी हैं, अगम्य भी...
फिर भी आपकी कविता में समय का सच है और साहित्यकार का साहस...
बधाई, नीला...

Anonymous said...

मैं ऐसे ही कभी-कभी तुम्हारे ब्लॉग पर आ जाया करूंगा...

DR.ASHOK KUMAR said...

अपने धारदार लेखन मेँ आपने शव्दोँ की व्यूह रचना इस प्रकार की है कि "प्रत्येक शब्द एक स्वतन्त्र विचार लगता है फिर भी पूरी एक कहानी कह जाता है।" आभार लीना जी!

इन्दु पुरी said...

'तभी जान पाई मैं कि क्या अर्थ होता है ज़ायका बदल लेने का और विवाह के बाद के प्रेम में कितना सुख छिपा होता है
और तुम क्यों और कहाँ चले जाते हो बार बार मुझे छोड़कर'
मैं कत्तई सहमत नही हूँ लीना इस बात से.जायका बदलने के लिए अपनों को धोखा देने वाले पुरुष के दुष्कर्मों की बराबरी करने के लिए स्त्री भी उसी राह पर चल पड़े.माफ करना शायद मैं बहुत पुरानी हो चुकी हूँ और मेरी सोच भी.
पर...रिश्तों में इस तरह की अमर्यादा कहीं भी न सहन की जाती है न स्वीकारी ही.
पुरुषप्रधान समाज होने तथा प्राकृतिक रूप से पुरुष के देह की बनावट के कारण उनके कृत्य को क्षमा योग्य जरूर मान लिया जाता है पर पसंद कभी नही किया गया.
बेहतर है कि स्त्री सबंध विच्छेद करके दूसरा विवाह कर ले पर......एक शादीशुदा औरत का 'जायका बदलना' ...... स्त्री स्वतंत्रता का या विरोध का स्वर मुखरित करने का यह तरीका है तो मैं इसका विरोध करती हूँ.
यह न समाज में आज पसंद किया जाता है न कभी किया जाएगा.
अपने व्यूज़ देने वाले यह भाई क्या अपने घर की बहु,बेटी,पत्नी को इसकी इजाजत देंगे?
यदि वे उनके ऐसे ही किसी व्यवहार से आहत होकर यही सब कुछकर गुजरती हैं तो क्या वे उन्हें माफ कर देंगे बिना घर में माहोल खराब किये????
प्यार,चरित्र हमारी कमजोरी नही हमारी सबसे बड़ी ताकत है बाबु ! यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं.दुःख पहुंचा हो तो क्षमा करना.

Nidhi said...

सुन्दर, सशक्त एवं धारदार लेखनी!! बधाई !!