यू पी एस सी के बस स्टॉप पर बैठी एक लड़की
मानो जड़ हो गई है
कोई बस नहीं पकड़ी उसने पिछले तीन घंटे से
या तीन शताब्दियों से
पढने की कोई कोशिश भी नहीं की किसी बस का नम्बर
बस सोचे चली जा रही है
अनंत विस्तार वाली किसी सड़क पर निकल गई है उसकी चेतना
अफ्रीका के घने जंगलों में शायद खो गई हैं उसकी स्मृतियाँ
अनंत विस्तार वाली किसी सड़क पर निकल गई है उसकी चेतना
अफ्रीका के घने जंगलों में शायद खो गई हैं उसकी स्मृतियाँ
कितने ही लोगों की जलती निगाहे उसकी ग्लेशियर बनी दृष्टि से टकरा कर वाष्पीकृत हो गई हैं
हर कोई बस में चढ़ने से पहले पूछना चाहता है उससे
माजरा क्या है
क्यों बैठी हो ऐसे
क्या किसी परीक्षा का परिणाम आ गया है
क्या किसी परीक्षा का परिणाम आ गया है
डर रही हो घर जाने से
पर नहीं
पर नहीं
इस उम्र में असफलताएं नहीं बदलती किसी को बुत में.
तो क्या वह प्रतीक्षा कर रही है किसी की
क्योंकि एक सन्नाटा उसकी पेशानी पर बैठा हांफ रहा है
क्योंकि एक सन्नाटा उसकी पेशानी पर बैठा हांफ रहा है
या विदा कह दिया है किसी ने उसको या उसने किसी को
क्योंकि उसकी आँखों के भूगोल में पैबस्त है एक उम्मीद
किसी के लौट आने की
या किसी तक लौट जाने की
उसके हाथ में पकड़ा एक खामोश मोबाइल
उसमे शायद किसी का संदेस है जिसने उसके लम्हों को सदियों में बदल दिया है.
क्योंकि उसकी उँगलियों में बची है अभी तक ऊर्जा
जो धीमे धीमे सहला रही है मोबाइल की स्क्रीन को
मानो उस दो इंच क्षेत्रफल में ही वह भूल भुलैय्या दफ़न है
जिसमे कोई खो गया है
और साथ ही वह भी खो गई है उसे ढूंढते हुए...
क्या सोच रही है वह
कोई नहीं जानता
किसी के लौट आने की
या किसी तक लौट जाने की
उसके हाथ में पकड़ा एक खामोश मोबाइल
उसमे शायद किसी का संदेस है जिसने उसके लम्हों को सदियों में बदल दिया है.
क्योंकि उसकी उँगलियों में बची है अभी तक ऊर्जा
जो धीमे धीमे सहला रही है मोबाइल की स्क्रीन को
मानो उस दो इंच क्षेत्रफल में ही वह भूल भुलैय्या दफ़न है
जिसमे कोई खो गया है
और साथ ही वह भी खो गई है उसे ढूंढते हुए...
क्या सोच रही है वह
कोई नहीं जानता
उसकी सोच किले की दीवारों की तरह आकाश तक पसरी है
वह है कि सोचे चली जा रही है
बिना मुस्कुराये
बिना रोये
बेखबर
बेखबर
बस सोचे ही चली जा रही है
-लीना मल्होत्रा
11 comments:
is kavita me ek dard hai jo registan ki gard ki tarah udta rahta hai aur hame lapet leta hai apne charo taraf . badhai. ek sashakt rachna.
Achchhi kavita...
यह वो पीड़ा है लीना जी , जो हम सबको अपने अंतर्मन से जोडती है जहां हम रोते हैं, हंसते हैं, और बाहर सब अनजान....
बहुत सुंदर शब्द विन्यास और भाव-व्यंजना...
आभार
एक सस्पेंस क्रियेट करती कविता । आजकल असफलताओं से कोई परेशान नहीं होता । मोबाइल में सोचते हुये कुछ ढूंढना या ढूंढते हुये कुछ सोचना । आंखों के भूगोल में पैबस्त एक उम्मीद। सोच का प्राचीर की दीवारों की तरह फैलना या पसरना ।
lamho ko sadion me badal diya vah
kya likha hai
अभी कुछ पलों के लिये फेसबुक पर आया तो आपकी इस कविता ने बांध लिया...
"क्योंकि उसकी उँगलियों में बची है अभी तक ऊर्जा
जो धीमे धीमे सहला रही है मोबाइल की स्क्रीन को"
आपाधापी और संशय के इस विदीर्ण होते समय में यह ऊर्जा बची रहनी चाहिये... कि यही है स्रिष्टि के विराट समय में फैली हुई आस्था का सौंदर्य और मनुष्य की जिजीविषा ...
एक उदीयमान कालजयी कवि को मेरी शुभकामनाएँ...
-सुनील
नमस्कार लीनाजी, आपने बहुत अछि कविता लिखी है. धन्यबाद ! ऐसे ही लिखते रहिये. मैंने अपने दूसरे ब्लौग जिसका पता है: http://www.cheytna-sansaar.blogspot.com/ ,पर नया आलेख लिखा है आप उसे पढ़ सकती हैं. -चेत्नादित्य आलोक
bahut achi kavita hy ..... antarman ko chhu gai
पहली दफ़ा आपके ब्लॉग पर आना हुया. रचनाशील बनी रहे..
aap sabhi mitro ka abhaar.
अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
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