Saturday 11 June 2011

यू पी एस सी के बस स्टॉप पर बैठी एक लड़की

यू पी एस सी के बस स्टॉप पर बैठी एक लड़की 
मानो जड़ हो गई है
कोई बस नहीं पकड़ी उसने पिछले तीन घंटे से
या  तीन शताब्दियों से 
पढने की कोई कोशिश भी नहीं की किसी बस का नम्बर
बस सोचे चली जा रही है
अनंत विस्तार वाली किसी सड़क पर निकल गई है उसकी चेतना
अफ्रीका के घने जंगलों में शायद खो गई हैं उसकी स्मृतियाँ
कितने ही लोगों की जलती निगाहे उसकी ग्लेशियर बनी दृष्टि से टकरा कर वाष्पीकृत हो गई हैं  

हर कोई बस में चढ़ने से पहले पूछना चाहता है उससे 
माजरा क्या है
क्यों बैठी हो ऐसे
क्या किसी परीक्षा का परिणाम आ गया है
डर रही हो घर जाने से
पर नहीं 
इस  उम्र  में  असफलताएं  नहीं बदलती किसी को बुत में.   
तो क्या वह  प्रतीक्षा कर रही है किसी की
क्योंकि एक सन्नाटा उसकी पेशानी पर बैठा हांफ रहा है  
या विदा कह दिया है किसी ने उसको या उसने किसी को
क्योंकि उसकी  आँखों के  भूगोल  में  पैबस्त है एक उम्मीद
किसी के लौट आने की
या किसी तक लौट जाने की
उसके हाथ में पकड़ा एक खामोश मोबाइल
उसमे शायद किसी का संदेस है जिसने उसके लम्हों को सदियों में बदल दिया है.
क्योंकि उसकी उँगलियों में बची है अभी तक ऊर्जा
जो धीमे धीमे सहला रही है मोबाइल की स्क्रीन  को
मानो उस दो इंच क्षेत्रफल  में ही वह भूल भुलैय्या दफ़न है
जिसमे कोई खो गया है
और साथ ही वह भी खो गई है उसे ढूंढते हुए...

क्या सोच रही है वह
कोई नहीं जानता 
उसकी सोच किले की दीवारों की तरह आकाश तक पसरी है  
वह है कि सोचे चली जा रही है

बिना मुस्कुराये 
बिना रोये
बेखबर   
बस सोचे ही चली जा रही है
-लीना मल्होत्रा 

11 comments:

anju said...

is kavita me ek dard hai jo registan ki gard ki tarah udta rahta hai aur hame lapet leta hai apne charo taraf . badhai. ek sashakt rachna.

Pushpendra Falgun said...

Achchhi kavita...

गीता पंडित said...

यह वो पीड़ा है लीना जी , जो हम सबको अपने अंतर्मन से जोडती है जहां हम रोते हैं, हंसते हैं, और बाहर सब अनजान....

बहुत सुंदर शब्द विन्यास और भाव-व्यंजना...


आभार

BrijmohanShrivastava said...

एक सस्पेंस क्रियेट करती कविता । आजकल असफलताओं से कोई परेशान नहीं होता । मोबाइल में सोचते हुये कुछ ढूंढना या ढूंढते हुये कुछ सोचना । आंखों के भूगोल में पैबस्त एक उम्मीद। सोच का प्राचीर की दीवारों की तरह फैलना या पसरना ।

madhu said...

lamho ko sadion me badal diya vah
kya likha hai

Anonymous said...

अभी कुछ पलों के लिये फेसबुक पर आया तो आपकी इस कविता ने बांध लिया...
"क्योंकि उसकी उँगलियों में बची है अभी तक ऊर्जा
जो धीमे धीमे सहला रही है मोबाइल की स्क्रीन को"
आपाधापी और संशय के इस विदीर्ण होते समय में यह ऊर्जा बची रहनी चाहिये... कि यही है स्रिष्टि के विराट समय में फैली हुई आस्था का सौंदर्य और मनुष्य की जिजीविषा ...
एक उदीयमान कालजयी कवि को मेरी शुभकामनाएँ...
-सुनील

चेतनादित्य आलोक said...

नमस्कार लीनाजी, आपने बहुत अछि कविता लिखी है. धन्यबाद ! ऐसे ही लिखते रहिये. मैंने अपने दूसरे ब्लौग जिसका पता है: http://www.cheytna-sansaar.blogspot.com/ ,पर नया आलेख लिखा है आप उसे पढ़ सकती हैं. -चेत्नादित्य आलोक

ranjeet said...

bahut achi kavita hy ..... antarman ko chhu gai

स्वप्नदर्शी said...

पहली दफ़ा आपके ब्लॉग पर आना हुया. रचनाशील बनी रहे..

leena malhotra rao said...

aap sabhi mitro ka abhaar.

संजय भास्‍कर said...

अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!