Saturday 4 February 2012

एक बदले की मौत

पता नही क्यों छिपाना  चाहती हूँ अब 
कि कोई  रिश्ता नही है मेरा उससे..

मैं कुछ डरे हुए खंडहरों   में भटक गई हूँ 
और पेज नम्बर निन्यानवे से मेरे हाथ आया है
वर्षों  से कर्फ्यू की  दहशत का मारा
गुलाब एक  सूखा हुआ 
चिंदी चिंदी अनाथ  टापुओं में बंटे शब्द..
जिनके अर्थ मेरी मुस्कराहट की पगडंडियों पर खो जाते थे .
वह 
पागल पेड़ की जिद्दी छाया सा 
टिका रहता था  ठीक उसके नीचे

हवा को थक कर बदल ही लेना पड़ता था रास्ता
गुज़र नही पाती थी हम दोनों के बीच से

याद है कितना कुछ मुझे 
बस याद नही कहाँ रख छोड़ी है बदले की कटार.

रख कर भूल गई हूँ कहीं
कहाँ है ?
ढूंढती हूँ हर उस जगह
जहाँ नही रखती कोई कीमती सामान.
तुलाई  के नीचे बस छिछोरे  बिजली पानी के बिल हैं 
दाल के डिब्बों में बच्चों की फीस के लिए छिपा कर रखी पूँजी  , 
मनौतियों की गुत्थी में दुआओं के  इंतज़ार में सोये पुराने नोट 
गर्म कोट की जेब में लुटेरी धूप निठ्ठली   बैठी है सर्दियों की इंतज़ार में
नही कहीं नही है धार
न बदले की वो कटार
यही है  मेरी अंतिम हार .

-लीना मल्होत्रा 

23 comments:

Unknown said...

मैं बताऊ बदले की कटार कहाँ है ..../ वो है इस कविता में ...

आशुतोष कुमार said...

सुखद है कविता की नयी उड़ान. आख़िरी पंक्ति सुदर्शन की कहानी '' हार की जीत '' की याद दिला गयी.

Roshi said...

sarthak bhav .......sunder rachna

अपर्णा मनोज said...

अन्य कविताओं से थोड़ी अलग लगी ये कविता .. जैसे मुहावरे में ढलता एक और नया मुहावरा .
सुन्दर कविता लीना . हमेशा की तरह .
खूब-खूब लिखो .
लोकार्पण के लिए बहुत -बहुत बधाई .
पुस्तक का नाम नहीं पूछा था तुमसे ..
किस नाम से आ रही है और कैसे पढ़ने को मिलेगी ..

शरद कोकास said...

अंत तक आते आते कविता बेहतरीन हो जाती है ।

Tripurari said...

शुरुआत बहुत ही ख़ूबसूरत है... अंत थोड़ा-सा अटका हुआ लगता है... बधाई..

सुनील अमर said...

किताब के पन्नों में सूखे गुलाबों का मिलना ! प्रेम याद आ जाने का सर्व व्यापी बिम्ब है लेकिन यही याद आ जाना '' डरे हुए खंडहरों में भटकाता है ''
लीना जी की कविताओं की एक अद्भुत विशेषता यह है कि इनमें प्रेम की उत्कृष्टता के साथ-साथ रोजमर्रा की जिन्दगी से मिलने वाले लगाव-दुराव की गज़ब विवेचना होती है! अति सूक्ष्म!! मिसाल देखिये - ‘‘हवा को थक कर बदल ही लेना पड़ता था रास्ता, गुजर नहीं पाती थी हम दोनेां के बीच से!’’ प्यार इतना सघन कि उसमें हवा जाने की भी गुंजाइश नहीं!
और संवेदना कि -‘‘ ,,,, दाल के डिब्बों मे बच्चों की फीस के लिए छिपा कर रखी पूँजी ,,,!’’
क्या बात है! गजब की कविता !! मेरी बधाई!!

सुनील अमर said...

किताब के पन्नों में सूखे गुलाबों का मिलना ! प्रेम याद आ जाने का सर्व व्यापी बिम्ब है लेकिन यही याद आ जाना '' डरे हुए खंडहरों में भटकाता है ''
लीना जी की कविताओं की एक अद्भुत विशेषता यह है कि इनमें प्रेम की उत्कृष्टता के साथ-साथ रोजमर्रा की जिन्दगी से मिलने वाले लगाव-दुराव की गज़ब विवेचना होती है! अति सूक्ष्म!! मिसाल देखिये - ‘‘हवा को थक कर बदल ही लेना पड़ता था रास्ता, गुजर नहीं पाती थी हम दोनेां के बीच से!’’ प्यार इतना सघन कि उसमें हवा जाने की भी गुंजाइश नहीं!
और संवेदना कि -‘‘ ,,,, दाल के डिब्बों मे बच्चों की फीस के लिए छिपा कर रखी पूँजी ,,,!’’
क्या बात है! गजब की कविता !! मेरी बधाई!!

Kanchan Lata Jaiswal said...

bhut sunder rachna hai.

Arun sathi said...

अंतिम हार, ओह प्यार के नहीं होने और नहीं होने का यह दर्द, दर्द में डुबो गया। दर्द की अभिव्यक्ति।

Pummy said...

अप्रतिम....अद्भुत कविता..

Anju (Anu) Chaudhary said...

पता नही क्यों छिपाना चाहती हूँ अब कि कोई रिश्ता नही है मेरा उससे..


नही कहीं नही है धार
न बदले की वो कटार
यही है मेरी अंतिम हार .........

हर कविता में कुछ पंक्तियाँ ...उसकी जान होती हैं ....आपकी कविता का सार ये हैं ...

प्यार में असफलता के दर्द को परिभाषित कर दिया आपने

Nidhi Rastogi said...

हवा को थक कर बदल ही लेना पड़ता था रास्ता
गुज़र नही पाती थी हम दोनों के बीच से
शब्दों का चयन.......कमाल.... बहुत सुंदर रचना

Shrikaant said...

bahut sunder saghan rachna apne saath saath aatyantik yaatra karati si

RAJJJJ said...

Really madam this is the voice of a heart perhaps who has seen all this!!!!!!!!!
rajesh patel

amrendra "amar" said...

behtreeen rachna

लोकेन्द्र सिंह said...

सुन्दर अभिव्यक्ति।

Dr.shiva yadav said...

बहुत लड़े हम अबकी बार
जीवन की गहमा गहमी में आते रहे
उतार चढ़ाव




किसने देखे किसने जाने
इस दुनिया के ताने बाने
कितनी बातें कितनी शर्तें
तर्कों पर तर्कों की पर्तें
बूत गए हम दोनो तो हैं एक नाव की
दो पतवार




लंबी बहसों का हलदायक
लड़ना अपनों का परिचायक
सच्चे मन से बहने वाले
आँसू होते हैं फलदायक
कड़वी दवा हमें देती है कभी कभी
असली उपचार



चलो काम को कल पर टालें
कुछ पल तो हम साथ बितालें
साथ बुने जो सपने मिल कर
आओ उनको पुनः संभालें
हाथ मिलाकर आज सजालें अपने सुख
का पारावार

ANULATA RAJ NAIR said...

किसी ग्रुप ब्लॉग(शायद जानकी पुल?? या अविराम) में आपकी एक रचना "चिडिया" पढ़ी...महत्वाकांक्षाओं की चिड़िया....
दिल चाहा आपका ब्लॉग खोजूं...
देखिये पा लिया...
:-)

बहुत सुन्दर लेखन....कायल हो गयी मैं.

सादर
अनु

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

हवा को थक कर बदल ही लेना पड़ता था रास्ता
गुज़र नही पाती थी हम दोनों के बीच से

दर्द भी है धार भी है .... बहुत सुंदर प्रस्तुति

शिवम् मिश्रा said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति ... आभार !

विभूति" said...

खुबसूरत अल्फाजों में पिरोये जज़्बात...

Madan Mohan Saxena said...

सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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