(मेरी यह कविता दैनिक जागरण(जम्मू) २२ अगस्त २०११ में प्रकाशित हुई है).
एक टुकड़ा
मेरे मन की उदासियों के द्वीप पर रहता है
सैलाब में डूबता उतरता भीगता रहता है
उसे नौका नहीं चाहिए
उसे नौका नहीं चाहिए
एक टुकड़ा
थका मांदा
चिंता में घुलता है पार उतर जाने की
चालाकियों की तैराकी सीखता है
युक्तियों में गोते लगाता है
फिर भीभीगना नही चाहता
सैलाब से डरता है डरता है
एक टुकड़ा
जिद्दी
अहंकारी
सपनो की मिटटी लगातार खोदता है
सोचता है
डोलता है
अहंकारी
सपनो की मिटटी लगातार खोदता है
सोचता है
डोलता है
डांवा डोल
भटकता है
एक टुकड़ा विद्रोही है
वह तोड़ता है वर्जनाये
ठहरे हुए पानी को खड्डों में से उडाता है
छपाक छपाक
एक टुकड़ा स्वार्थी है
सुवर्ण लोम को फंसाता है
उसकी पीठ पर सवार करता है समंदर पार
फिर उसी सुवर्णलोम की हत्या कर नीलाम करता है उसकी खाल
एक टुकड़ा वीतरागी
किनारे पर खड़ा देखता है
उसकी आसक्ति दृश्य से है
भटकता है
एक टुकड़ा विद्रोही है
वह तोड़ता है वर्जनाये
ठहरे हुए पानी को खड्डों में से उडाता है
छपाक छपाक
एक टुकड़ा स्वार्थी है
सुवर्ण लोम को फंसाता है
उसकी पीठ पर सवार करता है समंदर पार
फिर उसी सुवर्णलोम की हत्या कर नीलाम करता है उसकी खाल
एक टुकड़ा वीतरागी
किनारे पर खड़ा देखता है
उसकी आसक्ति दृश्य से है
वह धीरे धीरे टेंटालस के नरक की सीढियां उतरता है
एक टुकड़ा
भेज देती हूँ तुम्हारे पास
तुम्हारे सीने पर मेरा हाथ है
और तुम सो रहे हो
वह भी सोता है तुम्हारे स्पर्शों में बहता है
साँसों में जीता है
उसे बाढ़ से बहुत प्रेम है
वह भी सोता है तुम्हारे स्पर्शों में बहता है
साँसों में जीता है
उसे बाढ़ से बहुत प्रेम है
इन्ही टुकड़ों के संघर्ष, विरोध और घर्षण में
बची रहती हूँ मैं
अपने पूरे अस्तित्व के साथ
अपने पूरे अस्तित्व के साथ
एक रेत का समंदर मेरे भीतर पलता है
जिस पर कोई निशान शेष नही रहते.
-लीना मल्होत्रा
१७.०८.२०११ / समय ०९.०० साँय
जिस पर कोई निशान शेष नही रहते.
-लीना मल्होत्रा
१७.०८.२०११ / समय ०९.०० साँय
25 comments:
लीना जी,
मेरे द्वारा पढ़ी गयी आपकी पिछली तीनों कवितायें....वाकई अद्भुत हैं.....अपने-अपने विषयों को अपने एक अलग ही तरह से विचार करती...सवाल उठाती....उत्तर देती....इतिहास का विवरण देती...और बड़े गहरे तक जाती....आपकी कवितायें ना सिर्फ आपका अहसास हैं...अपितु...मेरे लिए एक अमूल्य थाती.....मैं शुक्रगुजार कि आप-सरीखी मित्र मुझे मिलीं....(अगर आप मुझे आपको खुद का मित्र कहने की अनुमति दें)और आपकी इस कविता पर भी मैं कुछ कहने में खुद को असमर्थ पा रहा हूँ....सच....मैं इनमें कहीं गहरे-गहरे तक डूबा हुआ हूँ....मुझे इनमें से मोटी चुनने दीजिये....और आप नयी-नयी सीपियाँ बनाती जाईये....!!आपको साधुवाद....!!
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ये मेरी कविता क्यूँ है ,ये उनकी सबकी कविता क्यूँ है ?कैसे कोई जान सकता है उन टुकड़ों को जो मुझमे भी हैं ,उनमे भी, जिन्हें वो नहीं जानता |एक कविता में इतना साहस कि वो आत्मघात भी इस हद तक करे ?ये कविता नहीं एक दस्तावेज है उनका जो टुकड़ों में बंटे हैं फिर भी जीते हैं ,हारते हुए ,लड़ते हुए ,डरते हुए ,प्यार करते हुए \
एक व्यक्ति ...पर, कई टुकड़ों में विभक्त और सभी का अलग-अलग अस्तित्व...अभिशप्त जीवन! बहुत अच्छी कविता...
आदरणीय लीना जी, नमस्कार।
आपकी कविता एक टुकड़ा कई बार पढ़ गया। कविता हर कोई पढ़ता है और अपने अनुसार उसे समझने की कोशिश करता है। मैं ने भी अपने समझ के अनुसार समझने की कोशिश की। जितना समझ पाया शायद कहीँ उससे अधिक सोचकर लिखा होगा। ऐसा लगा आपने जीवन की सचाइयों को खोल कर हमारे सामने रख दिया है। जीवन के कई रंग, कई उतार-चढ़ाव, ललसा, लीला, उत्कंठा-उत्साह, उमंग - उल्लास, आशा और अहंकार सभी कुछ तो है जीवन में और हमारे साथ सभी कुछ चलता रहता है। हम अपने अनुभव बटोरते रहते हैं आपने अनुसार जीवन को जीते रहते हैं।
इस जीवन के अनुभव कुछ अजीब होते हैं
हम सबके अपने-अपने नशीब होते हैं।
कोई सागर में रहकर भी प्यासा है
तो कोई सागर से दूर रहकर भी तृप्त है।।।।।।
---हमारी शुभकामनाएं आपके साथ सदैव बनी रहेगी।
ईश्वर करे जोरे कलम और ज्यादा......
टुकडों मे जीने का तरीका बता गयी आपकी कविता अंतिम की पंक्तियां गहरी है...जानलेवा है!
आभार
डॉ.अजीत
अछ्छी लगी.
टुकड़ों के टुकड़ा-टुकड़ा सच के जोड़ से बनती समूची बेजोड़ जिऩ्दगी का उद्वेलक, विश्वसनीय और विचारणीय चेहरा... जीवंत रचना... बधाई...
बहुत अच्छे !!
akhir ke do band lajawaab hain
वाह!....
आभार एक और सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए ...
आपकी रचनाओं में साधारणीकरण हो जाता है ...
टुकडों-टुकडों बँटना सीखा अक्स का झंझा छोड़ दिया
कैसी-कैसी पाबंदी हैं हमने कहना छोड़ दिया
और मैं कर भी क्या सकता था संबंधों के जंगल में
रहिमन धागा टूट चुका था गाँठ लगा कर जोड़ दिया ..
कविता जब व्यक्तिगत की जगह बहुत सारों या समूहों के संघर्ष को बयान करती है तो और भी प्रासंगिक हो जाती है... टुकड़ा-टुकड़ा संघर्षों की यह कविता उम्दा है... बधाई
कविता जब व्यक्तिगत की जगह बहुत सारों या समूहों के संघर्ष को बयान करती है तो और भी प्रासंगिक हो जाती है... टुकड़ा-टुकड़ा संघर्षों की यह कविता उम्दा है... बधाई - प्रदीप जिलवाने
बहुत सुन्दर अभ्व्यक्ति।
एक टुकड़ाभेज देती हूँ तुम्हारे पासतुम्हारे सीने पर मेरा हाथ हैऔर तुम सो रहे हो
वह भी सोता है तुम्हारे स्पर्शों में बहता है
साँसों में जीता है
उसे बाढ़ से बहुत प्रेम है..
....bahut sundar bimb sanyojan.
bahut badiya rachna..
Haardik shubhkamnayen!!
इन्ही टुकड़ों के संघर्ष, विरोध और घर्षण में
बची रहती हूँ मैं
अपने पूरे अस्तित्व के साथ
एक रेत का समंदर मेरे भीतर पलता है
जिस पर कोई निशान शेष नही रहते.
bahut khoob leena ji
सार्थक अभिव्यक्ति. कविता के प्रकाशन की बधाई.
फेसबुक से होता हुआ पहली बार आपके ब्लॉग 'अस्मिता' पर पहुंचा। आपकी कविता पढ़ी, नि:संदेह एक प्रभावकारी और सशक्त कविता लगी मुझे… बधाई…
सुभाष नीरव
8447252121
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IT IS THE STREAM THOUGHT
उस टुकड़े को बहना पसन्द है !
वही टुकड़ा तुम्हे जिलाए रखेगा अंत तक !!!!!
प्रत्येक स्थिति में जीने के लिए प्रेरित करती सुन्दर रचना .
बहुत सुंदर कविता लीना जी बहुत -बहुत बधाई और शुभकामनाएं
बहुत सुंदर कविता लीना जी बहुत -बहुत बधाई और शुभकामनाएं
सुन्दर अभिव्यक्ति
एक रेत का समंदर मेरे भीतर पलता है
जिस पर कोई निशान शेष नही रहते.
अंत की यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं। आपके ब्लॉग पर आकर भी बहुत अच्छा लगा।
शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
सादर
प्रभावशाली रचना....
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