Sunday 7 August 2011

मैं आई थी

मैंने तुम्हे देखा

किताबे बिखरी थी 
कुछ आधे लिखे पन्ने फाड़ कर फेंक दिए गए थे 
पेन खुला पड़ा था 
और बेसुध सोए हुए थे तुम
कुर्सी पर सर टिका था ...

बिना आहट और अधिकार के घुस आई हूँ मैं 
बची हुई चाय  प्याले में से उलट दी है और गंध और  स्पर्श  को बचा लिया है 
धुले  हुए  प्याले को  अभिवादन के लिए तैयार बैठा पाओगे  प्लेट पर 
सिगरेट की ऐश ट्रे की राख उड़ा दी है
और
धूएँ के सब गुनाह माफ़ करके उसे मुक्त कर दिया है 
सुबह तक  एक चिनार का पेड़ उगा मिलेगा उसमे

पागल दीवारों पर लिपटे हुए सब जाले और सिरफिरी धूल को पोंछ  दिया है. 

तुम्हारी खिड़की से जो  लाल गुलाब झांक रहा था 
उसे सहला कर 
समझा दिया है उपेक्षित महसूस न करे 
तुम व्यस्त हो...
बिस्तर पर कुछ सिलवटें बिखेर दी हैं 
धुली हुई चादर अलमारी से निकाल कर पैताने रख दी है 
और अलमारी में बंद कर दी हैं अलग अलग रंगों की  शुभ कामनाएं 
ठीक तुम्हारे कपड़ो के बराबर में 
वह इंतज़ार कर रही हैं...

न जाने कल तुम कौन सा रंग चुनोगे?

22 comments:

Ashish Pandey "Raj" said...

वाह !
के अतिरिक्त शब्द ही नहीं मिलते...
"फुर्सत से आज घर को सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कराता है ,रोया हुआ सा कुछ ...."
आभार इतनी सुन्दर कविता देने का

सुनील अमर said...

''...तुम्हारी खिड़की से एक लाल गुलाब झांक रहा था
उसे सहला कर
समझा दिया है उपेक्षित महसूस न करे
तुम व्यस्त हो..''
--------------
''..और अलमारी में बंद कर दी हैं अलग अलग रंगों की शुभ कामनाएं
ठीक तुम्हारे कपड़ो के बराबर में ...''
--------------------
बढ़िया लिखा आपने लीना जी. प्रेम की पराकाष्ठा, जहां अपना कुछ नहीं. ओशो कहते हैं कि --'' प्रेम तब हुआ समझो जब प्रेमी कह दे कि अब तो तू ही तू है ''
ऐसी ही अभिव्यक्ति है आपकी कविता की नायिका की.
सहेजना, संभालना और ख़ुद को अर्पित किये रहना !
आज के दौर में क्षणिक ही सही लेकिन सुकून देती हैं ऐसी कविताएँ और एक उम्मीद जगाती हैं कि ऐसा भी हो सकता है.
आप के भाव सुन्दर हैं.

विमलेश त्रिपाठी said...

अच्छे भाव.. बहुत अच्छी कविता। मर्म की छूती... बधाई...

Vinay said...

गुलज़ार साहब की ख़ुशबू सी आयी है, बहुत सुन्दर !

poonam singh said...

really good

G.N.SHAW said...

अपना कर्म और अपनत्व साथ -साथ ! बहुत गहराई भरी !

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

धूएँ के सब गुनाह माफ़ करके उसे मुक्त कर दिया है
सुबह तक एक चिनार का पेड़ उगा मिलेगा उसमे-----Bahut sundar panktiyan Leena ji..kafi kuchh abhivyakt kar rahi hain...
Hemant

अजेय said...

हाँ, तुम ही थीं शायद ....... हवा महक रही है अभी भी .......

सुकून बक्श. आभार !

praveen pandit said...

खुशबू गमकाती चली गई रचना |अनुभूतियों से लबालब |
बार बार पढ़ा , और पढ़ते रहने को मन किया |

शायन said...

अच्छी कविता है बधाई

Vipul said...

Bahut sunder bhavpurn kavita. koi shabd aisa nahi jise baar baar na padha ho. bahut ummeed se bhari hui hai.. maanviye rishto me ek rishta prem ka jo samarpan se khil uthta hai.. is baat ka sukhad ehsaas dilaati hai.. ek khoobsurat, uttam rachna ke liye haardik badhai.

vijay kumar sappatti said...

पहली बार आया हूँ शायद.. मेरे अपने शब्द कुछ ठहर से गए है आपकी कविता में .. ऐसा लगा कि अमृता और गुलज़ार के अलफ़ाज़ पढ़ रहा हूँ. अब आपकी सारी नज्मो को पढूंगा .. वादा रहा ..

आभार
विजय
-----------
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

S.N SHUKLA said...

बहुत सटीक प्रस्तुति

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

kyaa baat.....kyaa baat.....kyaa baat...lazawaab......

Mahesh Chandra Punetha said...

bahut sarthak kavitayen likh rahi hain aap. in kavitaon maon jeevan ka gahara tap dikhai deta hai. sahaj-saral -saras abhivykti. man prasann ho gaya ......

Jyotipant said...

वाह मजा आ गया, कितनी सटीक अभिवक्ति है आपकी फेसबुक पर महेश पुनेठा जी से आपके ब्लॉग का लिंक मिला और पढता ही चला गया, मानवीय संवेदनाओं एवं बिम्बों का प्रस्तुतीकरण लाजवाब है शुभकामनाएं

Dr.Ajit said...

वाह लीना जी वाह!
भाव,शिल्प और सम्वेदना की गहरी अभिव्यक्ति की है आपने....विरेचन हो गया मन का...! ऐसे आगंतुक की प्रतिक्षा भला कौन बावरा न करना चाहेगा..लेकिन ऐसे लोग मिलते मुश्किल से हैं।
आभार
डॉ.अजीत

Anant Alok said...

क्या बात है ! लीना जी आप तो बहुत ही सुन्दर भाव प्रधान काव्य कौशल में निपुण हैं | इतनी गहराई में जाकर लिखना आम आदमी के बस की बात नहीं | बहुत बहुत बधाई |

संजय भास्‍कर said...

अच्छी कविता है
..http://sanjaybhaskar.blogspot.com/

संजय भास्‍कर said...

वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.

विभूति" said...

बेजोड़ भावाभियक्ति....
भावों से नाजुक शब्‍द.....

Nidhi said...

तुम्हारी खिड़की से जो लाल गुलाब झांक रहा था
उसे सहला कर
समझा दिया है उपेक्षित महसूस न करे
तुम व्यस्त हो...
क्या बात है ...बहुत खूब.