"दुनिया इन दिनों" भोपाल से छपने वाली पत्रिका , अगस्त २०११ में यह कविता छपी है.
हर रोज़ वह स्त्री उस मोड़ पर जाती है
जहाँ सूरज हमेशा के लिए डूब गया था.
जहाँ सूरज हमेशा के लिए डूब गया था.
और वह निरापद अँधेरे को लिए लौट आई थी
अब उसकी आँखे अँधेरे में देखने की अभ्यस्त चुकी है
और निर्जनता में जीने के आदी हो चुके है दिन
तो भी
बीन लाती है वह कोई स्मृति कोई पीड़ा
रोज़ दो लम्हों का करती है जुगाड़
जिसमे उसकी स्मृति और पीड़ा कलोल करते हैं...
और उसके जीवन में उजाला भरते हैं
फिर छिपा देती है उन्हें तहखाने में
तहखाने में छिपे दो क्षण बतियाते हैं
कितना सघन था दोनों का प्रेम
उतनी ही घनीभूत पीड़ा
और जानलेवा स्मृतियाँ....
अब हमारी .. बस दो लम्हों की मोहताज़ हैं
जाने दक्षिणा में क्या मांग ले...
और उसके जीवन में उजाला भरते हैं
फिर छिपा देती है उन्हें तहखाने में
तहखाने में छिपे दो क्षण बतियाते हैं
कितना सघन था दोनों का प्रेम
उतनी ही घनीभूत पीड़ा
और जानलेवा स्मृतियाँ....
अब हमारी .. बस दो लम्हों की मोहताज़ हैं
और वे गौरान्वित होते हैं
श..s
बाहर क़त्ल का पुरोहित आ चुका हैजाने दक्षिणा में क्या मांग ले...
उन्हें निर्देश है कि वे ज़ोर से आवाज़ न करें
-लीना मल्होत्रा
13 comments:
रोज़ दो लम्हों का करती है जुगाड़
जिसमे उसकी स्मृति और पीड़ा कलोल करते हैं...
और उसके जीवन में उजाला भरते हैं
फिर छिपा देती है उन्हें तहखाने में
क्या बात है....
लिखती रहें लीना...
सस्नेह
गीता
किन्ही मोड़ो पर हम किसी को विदा तो कर आते है पर वापिस खाली नहीं लौटते..ढ़ेरों स्मृतियाँ..खूबसूरत यादें..प्रेम हर रूप में सुंदर होता है...जो प्रेम ही है वो सत्य भी है सुंदर भी..परन्तु प्रेम का प्रतीक्षा रूप जो भले पीड़ा के साथ होता है सबसे सुंदर रूप है...
लीना जी आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया और उद्वेलित होगया आपकी कविता को पढ़कर... सचमुच जोर से आवाज़ करने का मन नहीं कर रहा... स्त्री मन की गहराई में उतर कर कविता बनी है... इतनी संवेदनशीलता कम देखने को मिली है....
"बाहर क़त्ल का पुरोहित आ चुका है
जाने दक्षिणा में क्या मांग ले...
उन्हें निर्देश है कि वे ज़ोर से आवाज़ न करें"
बहुत खूब लीना जी। शुक्रिया दिल को छूती पंक्तियों के लिए।
सुन्दर अभिव्यक्ति.
bahut bhav poorn kavita. maano dil nikal kar rakh deti hain aap. shukriya
बीन लाती है वह कोई स्मृति कोई पीड़ा
रोज़ दो लम्हों का करती है जुगाड़
samvednsheel rachna , jhajhorti hui ,
sundr bhavavyakti , badhai
Very Good
U love your own life
Cant we live and Write Like Rajesh Khanna in Anand.
Always be happy and most optimist
पति पत्नी के लिए प्रेम का प्रतिमान है
और पत्नी पति के लिए, अगर प्रेम हो तो प्राण है/
पर प्राण शारीर से अलग हो पीड़ा तो असहय होगी ही/
aap sabhi mitro ka abhaar..
आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी......आपको फॉलो कर रहा हूँ |
कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
रोज़ दो लम्हों का करती है जुगाड़
जिसमे उसकी स्मृति और पीड़ा कलोल करते हैं...
और उसके जीवन में उजाला भरते हैं
फिर छिपा देती है उन्हें तहखाने में
तहखाने में छिपे दो क्षण बतियाते हैं
कितना सघन था दोनों का प्रेम
उतनी ही घनीभूत पीड़ा
और जानलेवा स्मृतियाँ....प्यार की विवशता
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