Tuesday 7 June 2011

आफ्रा तुम्हे शर्म नहीं आती तुम अकेली रहती हो.


आफ्रा को  खींच  लाने  के  सड़क  के  सारे  प्रलोभन  जब  समाप्त  हो  गए 
तो  वह सड़क जो आहटो के लिए एक कान में तब्दील हो चुकी थी
अचानक उठकर आफ्रा  की  देहरी पर आ गई है
और द्वार पर दस्तक   दे कर पूछती है
क्या तुम्हे किसी की प्रतीक्षा है
नहीं
क्या तुम कहीं  जाना चाहती हो
नहीं
क्या कोई आने वाला है
नहीं

आफ्रा  कहती है  नहीं
और वह  आँखें  बन  कर चिपक  जाती  है उसके  घर की दीवारों पर 
उन  पर्दों  के  बीच लटक जाती है उसकी पगडंडियाँ 
जो आफ्रा की   दुनिया  को  दो  भागों  में  विभाजित  करते  थे.
उसकी हैरान दृष्टि भेदती  है  
आफ्रा के  विचारो  के कहीं  ध्वस्त तो कही मस्त  गाँव को 
उसके  अवशेषों में ढूंढती है कहानियां और मस्ती में अश्लीलता   
एक श्रृंखला में  पिरोये   हुए   अलग  अलग  सालों  से  टूट  कर  गिरे  कुछ प्रचंड,
 कुछ ख़ामोश  लम्हे 
वह बटन  जो  सूरज    को  बुझा  देता  है उसकी   मर्ज़ी  से
और  वह अँधेरा जिसे वह   घर की सब बाल्टियो भगौनो और कटोरियों में इकठा करके रखती है 
आगन्तुक के आने पर सबके छिपने की जगह नीयत है
लेकिन कोई नहीं भागता
और ढीठपने के साथ  देखते है सड़क को घर का सामान बनते हुए.
सब कुछ अचानक निर्वस्त्र हो गया है.
और  
आफ्रा  सोचती है   इन  खौलती  आँखों  से   परे  अपनी  निष्ठां  को  कहाँ  छिपाये 

एक प्रतिक्रिया विहीन दाल और रोटी वह  अपने इस अनचाहे अतिथि को परोसती है 
तभी सड़क उससे पूछती है
तुम क्यों जीती हो
आफ्रा  अचकचाकर कहती है 
सब जीते है क्योंकि जीना पड़ता है
तुम गीत क्यों गाती हो
मुझे अच्छा लगता है
तुम्हे पता है तुम्हारे गुनगुनाने की आवाज़ बाहर तक सुनाई पड़ती है
आफ्रा चुप
और तुम लड़की हो
अँधेरे मापती और अकेले गीत गाती लड़की कोई पसंद नहीं करता
कपडे देखे है तुमने अपने 


जानती हो लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते है कि तुम. ..

इससे पहले कि वह बात पूरी करे आफ्रा फट पड़ती है
बताती है  उसे कि क्या कहते हैं लोग सड़क के  बारे में ..

कि सड़क!  तुम निम्फ हो और लाखों राहगीर गुज़रे है तुम्हारी राहों से 
फिर भी तुम्हे न जाने कितने मुसाफिरों का इंतज़ार है.
क्या तुम थोड़ी और दाल लोगी ?
और आफ्रा  कटोरी से अँधेरा उलट कर दाल
और ग्लास  में भरी मस्ती बहा कर जल प्रस्तुत  करती है 
और तुम्हारी तो कोई मंजिल भी नहीं है तो फिर क्यों बिछी रहती हो सड़क 
किसके इंतज़ार में ?
वो कमबख्त ढीठ लम्हे जो तिल तिल जलने के  आदी हो चुके है ठठा कर हँसते हैं
और आफ्रा को  मुबारकबाद देते है 
अकेले शहर में रहने वाली लड़की की भाषा को सीखने का जश्न मनाते हैं
सड़क भी आमंत्रित है 
लेकिन  सड़क  लौट जाती है लगभग भागते हुए!
और रद्दी की टोकरी आफ्रा  पहली बार 
देहरी के बाहर रख देती है 
जिसमे ढेरो चरित्र के सर्टिफिकेट है जो उड़ कर आ गए थे उसी सड़क के रास्ते 
और जिनका मूल्य है मात्र ५ रूपये किलो.
-लीना मल्होत्रा 

10 comments:

ranjeet said...

so nise....

anju said...

afraa ko bedhti ek sarvjanik sadak aksar sabhi striyon ki zindagi se hokar guzarti hai aur bahut baar stree ko maun rah jaana padta hai. arfaa sahsi hai akele rahne ki bhasha seekh leti hai. sabhaar. sundar bhav.

Anonymous said...

"आफ्रा कहती है नहीं
और वह आँखें बन कर चिपक जाती है
उसके घर की दीवारों पर..."
नारी के मन और उसकी वंचना की सीली भावभूमि को, साथ ही उद्दाम अनुभूति के ताप को साथ सहे जाने की अनुभूति देती है लीना की यह कविता... दर्द की भी एक ध्वनि होती है यह यहाँ सुनाई देता है...
भावना के अपहरण से कविता के यथार्थ और विचार को थोड़ा बचाना भी जरूरी है ...
-सुनील ...

आशुतोष कुमार said...

एक बुलंद साफ़ शफ्फाक आवाज़ उठाती कविता.

Anonymous said...

Bohot acchi lagi. Shukriya.
Rachna.

Rangnath Singh said...

संवदेनशील और विचारप्रवण कविता।

इच्छा नदी के पुल पर said...

kamal ki kavitayen hain aapki...bahut khoob.

leena malhotra rao said...

aap sabhi mitron ka abhaar.

संजय भास्‍कर said...

एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
यही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!

विभूति" said...

यार्थार्थ को दर्शाती अभिवयक्ति...