नहीं
मै नही दिखाना चाहती अपने घाव हरे भरे
तुम्हारी सहानुभूति नही चाहिए मुझेमै नही दिखाना चाहती अपने घाव हरे भरे
मैं जानती हूँ तुम मुझे मलहम लगाने के बहाने आओगे
और
उत्खनन करोगे मेरे आत्मसम्मान की रक्त्कोशिकाओ का
मै तो बजना चाहती हूँ बांसुरी सी
कींचल के पेड़ की तरह जो अपने ही सूराखो से बज उठता है हवा के गुजरने पर
अपने ही ज़ख्मो से छेड़ देता है एक धुन मीठी दर्द भरी. पेपरवेट में बंद हवा जैसे सपने कैद हैं मेरी स्मृति में
जिन्हें मुक्त नही किया जा सकता मुझे तोड़े बिना
कई बार ऐसे अपरिचित बादल बरस जाते हैं जो मेरे आकाश के नही थे
उन्हें भटका के ले आया था मेरा ही संकल्प
उनकी बारिश में खुशबु पा लेती हूँ तुम्हारे नाम कीतुम नही समझते जब तुम्हारा नाम किसी और के मुहं से सुन लेती हूँ
तो ये किसी प्रगाढ़ मिलन से कम नही होता
और जख्मो का जिंदा रहना तब और भी ज़रूरी हो जाता है
जो हर दम मुझे अहसास करते हैं
मरी नहीं हूँ मैं
मरे नहीं हो तुम
जिंदा हैं दोनों इस दुनिया के किन्ही अलग अलग कोनो में
अपने अपने झरनों के समीप
मुस्कुराते हुए बह रहे हैं सागर में शेष हो जाने के लिए..
-लीना मल्होत्रा
24 comments:
उनकी बारिश में खुशबू पा लेती हूँ तुम्हारे नाम की
तुम नही समझते कि
जब तुम्हारा नाम किसी और के मुहं से सुन लेती हूँ
तो ये किसी प्रगाढ़ मिलन से कम नही होता...
और भी बहुत कुछ है चिन्हित करने को मगर सिर्फ़ सुन्दर कविता के लिए बधाई.
कवि शब्द अभिनय में दक्ष होता है ! व्यथा किसी की, व्यखान हमारा ! शब्द दर्शन इतना सुन्दर होता है जैसे स्थिति हमारी ही थी ! स्वयं का अनुभव तो किसी को अपनी ही गोद में बिठा देने जैसे वाली बात हो जाती है ! अति सुन्दर लीना जी !
लेकिन कवि की किस्मत
इतनी अच्छी नहीं होती।
वह अपनें भविष्य को
आप नहीं पहचानता।
हृदय के दानें तो उसनें
बिखेर दिये हैं,
मगर फसल उगेगी या नहीं
यह रहस्य वह नहीं जानता ।
लेकिन कवि की किस्मत
इतनी अच्छी नहीं होती।
वह अपनें भविष्य को
आप नहीं पहचानता।
हृदय के दानें तो उसनें
बिखेर दिये हैं,
मगर फसल उगेगी या नहीं
यह रहस्य वह नहीं जानता ।
लीना , अच्छी कविता .. बधाई !
Sundar ! bahut sundar.
Samvedanaon ka jhanjhawaat haen ye panktiyan. Badhaee.
adbhut
"मरी नहीं हूँ मैं
मरे नहीं हो तुम
जिंदा हैं दोनों इस दुनिया के किन्ही अलग अलग कोनो में
अपने अपने झरनों के समीप
मुस्कुराते हुए बह रहे हैं सागर में शेष हो जाने के लिए.."
एक और उत्कृष्ट रचना देने के लिए आभार...
सुन्दर अति सुन्दर ....
बहुत सुन्दर रचना ,लेकिन अपने सपनों पर बड़ा कठोर प्रतिबन्ध लगाया आपने !
v good poem
जैसे कींचल का पेड़ अपने ही सूराखो से बजता है हवा के गुजरने पर.
अपने ही ज़ख्मो से छेड़ देता है एक धुन मीठी दर्द भरी.
बहुत अच्छा लिख रही हैं आप..। आपके लेखन में एक आवेग है, जो आकशित करता है। बहुत-बहुत बधाई...
Boht sunder..leena..
मै तो बजना चाहती हूँ बांसुरी सी
जैसे कींचल का पेड़ अपने ही सूराखो से बजता है हवा के गुजरने पर.
अपने ही ज़ख्मो से छेड़ देता है एक धुन मीठी दर्द भरी.....
शानदार धुन …
वाह.. फिर एक शानदार कविता !!
कींचल का पेड़ ...... सन्दर्भ खोलिए ज़रा .
तुम्हारी सहानुभूति नही चाहिए मुझे
मैं जानती हूँ तुम मुझे मलहम लगाने के बहाने आओगे
और
उत्खनन करोगे मेरे आत्मसम्मान की रक्त्कोशिकाओ का
Achhi evam sarthak kavita
jab tumhara naam kisi aur k muh se sun leti hu
to ye kisi pragan milan se kam nahi hota
bahot sunder kavita
bahut sunder rachna.. shaandar abhivyakti.. kavi ne apne sansaar ko sabka sansaar bana diya.. jitni baar padhi har baar nayee lagi.. baar baar padhne ko prerit karti hai ye kavita.. ati uttam.
आपकी कविता में एक आत्मसम्मान और बारीक अनुभूति का स्पर्श है। कविता के लिए यह बहुत जरूरी है। आपका गांभीर्य और प्रवाह आपको काव्य जगत में स्थापित कर सकता है। बहुत अच्छी प्रस्तुति!
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ हैं ये --
''...मै तो बजना चाहती हूँ बांसुरी सी
जैसे कींचल का पेड़ अपने ही सूराखो से बजता है हवा के गुजरने पर.
अपने ही ज़ख्मो से छेड़ देता है एक धुन मीठी दर्द भरी...''
+ + + +
''.. पेपरवेट में बंद हवा जैसे सपने कैद हैं मेरी स्मृति में
जिन्हें मुक्त नही किया जा सकता मुझे तोड़े बिना..''
+ + + +
लीना जी, अच्छी लगीं ये लाईनें. नए बिम्ब ! नए प्रतिमान !! भावनाओं को कुरेदने का बेहद नया अंदाज़ !!!
लेकिन स्मृतियों को तोडा जा सकता है भला ?
और टूटने पर भी जो बांसुरी सा बज उठता हो, उसे कौन तोड़ सकता है ?
बढ़िया लिखा आपने. यह क्रम बनाये रखियेगा.
पेपरवेट में बंद हवा जैसे सपने कैद हैं मेरी स्मृति में
जिन्हें मुक्त नही किया जा सकता मुझे तोड़े बिना...SHANDAR
तुम नही समझते जब तुम्हारा नाम किसी और के मुहं से सुन लेती हूँ
तो ये किसी प्रगाढ़ मिलन से कम नही होता
और जख्मो का जिंदा रहना तब और भी ज़रूरी हो जाता है
जो हर दम मुझे अहसास करते हैं
मरी नहीं हूँ मैं
मरे नहीं हो तुम
जिंदा हैं दोनों इस दुनिया के किन्ही अलग अलग कोनो में
अपने अपने झरनों के समीप
मुस्कुराते हुए बह रहे हैं सागर में शेष हो जाने के लिए.....बहुत -बहुत सुन्दर.सब कुछ कह डाला ,आपने इस कविता में.
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