Tuesday 28 June 2011

प्यार.. बिना शर्तों के.


मै एक पारदर्शी अँधेरा हूँ 
इंतज़ार कर रहा हूँ अपनी बारी का
रात होते ही उतरूंगा तुम्हारे कंधो पर

तुम्हारे बालो के वलय की घुप्प सुरंगे  रार करती  हैं मुझसे 
तुम एक ही बाली क्यों पहनती हो प्रिये 
आमंत्रण देती है  मुझे ये 
एक झूला झूल लेने का  
और  यह  पिरामिड जहाँ से
समय भी गुज़रते हुए अपनी चाल धीमी कर लेता है
हवाओ को अनुशासित करते  हैं
और हवाए एक संगीत की तरह आती जाती रहती हैं
जिसमे  एक शरद ऋतु चुपचाप  पिघल के बहती रहती  है. 

तुम्हारी थकी मुंदती आँखों में तुम्हारे ठीक सोने से पहले 
मै चमकते हुए सपने रख देता हूँ
और अपनी सारी  सघनता झटककर पारदर्शी बन जाता हूँ
ताकि मेरी सघनता तुम्हारे सपनो में व्यवधान न प्रस्तुत कर दे.
क्या तुमने सोते हुए खुद को कभी देखा  है ?
निश्चिन्त ..अँधेरे को समर्पित,
असहाय ..पस्त ..नींद के आगोश में गुम
सपने भी वही देखती हो जो मै तुम्हे परोसता हूँ
और तुम्हारी देह के वाद्यों से निकली अनुगूंज को नापते हुए मेरी रात गुज़र जाती है
और मै तुम्हारा ही एक उपनिवेश बनकर गर्क हो जाना चाहता हूँ तुम्हारे पलंग के नीचे

तुम्हे उठना है सूरज के स्वागत के लिए तरो ताज़ा 
भागती रहोगी तुम शापित हाय 
सूरज के पीछे 
और मै सजाता रहूँगा पूरा दिन वो  सपने जो दे सकें तुम्हे ऊर्जा 
देखा कितना सार्थक है मेरा होना तुम्हारे और सूरज के बीच में धरा

क्या तुम मुझे पहचानती हो 
मै हर बार उतरा हूँ तुम्हारे क़दमों में और पी गया हूँ तुम्हारी  सारी थकान
और अनंतकाल से मै सोया नहीं हूँ.
जबकि  तुम अनंतकाल से भाग रही हो सूरज के पीछे 
और तब जब भूल जाती हो मुझे एक स्वप्न की तरह 
मै लैम्पपोस्ट  के नीचे खड़ा होकर प्रतीक्षा करता हूँ तुम्हारी 
प्यार करता हूँ बिना शर्तो के.

-लीना मल्होत्रा. 

Friday 24 June 2011

मै सहमत न थी.

जनवाणी समाचार  पत्र  04.09.2011   में यह कविता छपी है

नदी की लहरों
मैं नहीं बन पाई मात्र एक  लहर
नहीं तिरोहित किया मैंने अपना अस्तित्व नदी में
तुम्हारे जैसा पाणिग्रहण नहीं निभा  पाई मैं
इसलिए क्षमा मांगनी है तुमसे.

वृक्षों तुमसे नहीं सीख पाई दाता का जीवन
तुम्हारे फल, छाया और पराग देने के पाठ नहीं उतार पाई जीवन में
मेरी आशाओं के भीगे पटल पर धूमिल पड़ते तुम्हारे सबकों से क्षमा मांगनी है मुझे.

सूरज को पस्त करके लौटी गुलाबी शामो
तुम्हे  गुमराह करके 
अपने डर के  काले लबादों में ढक कर तुम्हे काली रातों  में बदलने के जुर्म में
क्षमा मांगनी है तुमसे

क्षमा मांगनी है कविता के उन खामोश  अंतरालों से
जो शब्दों के आधिपत्य में खो गए 
उन चुप्पियों  से
जो इतिहास के नेपथ्य में खड़ी रही बिना दखलंदाजी के
उन यायावरी असफलताओं से जिन्होंने समझौते की ज़मीनों पर नहीं बनाये घर

उन बेबाक लड़कियों से क्षमा मांगनी है मुझे जो मुस्कुराते हुए चलती है सड़क पर
जो बेख़ौफ़ उस लड़के की पीठ को राईटिंग पैड बना  कागज़ रख कर लिख रही है शायद कोई  एप्लीकेशन 
जो बस में खो गई है अपने प्रेमी की आँखों में
जिसने उंगलिया फंसा ली है लड़के की उँगलियों में
उन लड़कियों के साहस से क्षमा मांगनी है मुझे

जिनकी निष्ठा बौनी पड़ती रही  नैतिकता के सामने     
जो आधी औरतें आधी किला बन कर जीती रही तमाम उम्र
जिन्हें अर्धांगिनी स्वीकार नहीं कर पाए हम
जिनके पुरुष  नहीं बजा पाए उनके नाम की डुगडुगी
उन  दूसरी  औरतो से क्षमा मांगनी है मुझे.  

मुझे  क्षमा  मांगनी  है  
आकाश  में  उडती  कतारों के अलग  पड़े  पंछी से 
आकाश का एक कोना उससे छीनने के लिए
उस पर अपना नाम लिखने के लिए
उसके  दुःख में अपनी सूखी आँखों के निष्ठुर  चरित्र  के लिए

रौंदे गए अपने ही  टुकड़ों से
अनुपयोगी हो चुके रद्दी में बिके सामान से,
छूटे और छोड़े हुए रिश्तों से अपने स्वार्थ के लिए क्षमा  मांगनी है मुझे

नहीं बन पाई सिर्फ एक भार्या, जाया और सिर्फ एक प्रेयसी
नहीं कर पाई जीवन में बस एक बार प्यार
इसलिए क्षमा मांगनी है मुझे तुमसे
तुम्हारी मर्यादाओं का तिरस्कार करने के लिए .
घर की देहरी छोड़ते वक्त तुम्हारी  आँखों की घृणा  को अनदेखा  करने के लिए
तुम्हारे मौन को मौन समझने की भूल करने के लिए
मुझे क्षमा मांगनी है तुमसे!


Tuesday 21 June 2011

ज़ोर से आवाज़ न करें

"दुनिया इन दिनों" भोपाल से छपने वाली पत्रिका , अगस्त २०११ में यह कविता छपी है.  

हर रोज़ वह स्त्री उस मोड़ पर जाती है

जहाँ सूरज हमेशा के लिए डूब गया था. 
और वह निरापद अँधेरे को लिए लौट आई थी  
अब उसकी आँखे अँधेरे में देखने की अभ्यस्त चुकी है 
और निर्जनता  में जीने के आदी हो चुके है दिन 
तो भी  
बीन लाती है वह  कोई स्मृति कोई पीड़ा 
रोज़ दो लम्हों का करती है  जुगाड़   
जिसमे उसकी  स्मृति और पीड़ा कलोल करते हैं...
और उसके जीवन में उजाला भरते हैं
फिर छिपा देती है उन्हें तहखाने में

तहखाने में छिपे दो क्षण बतियाते हैं
कितना सघन था दोनों का प्रेम
उतनी ही  घनीभूत पीड़ा
और जानलेवा  स्मृतियाँ....
अब हमारी .. बस दो लम्हों की मोहताज़ हैं
और वे  गौरान्वित होते हैं
श..s
बाहर क़त्ल का पुरोहित आ चुका है
जाने दक्षिणा में क्या मांग ले...
उन्हें निर्देश है कि वे ज़ोर से आवाज़ न करें 

-लीना मल्होत्रा 

Friday 17 June 2011

एक चित्र एक याद.

"दुनिया इन दिनों" भोपाल से छपने वाली पत्रिका , अगस्त २०११ में यह कविता छपी है.

दो पटरियों  के बीच रास्ता  भूली  एक  बकरी..
कुएँ कि मुन्डेर पर पडी एक परित्य्क्ता  बाल्टी..
आधे वस्त्र पहनी घुटनो तक पानी मे डूबी
खेत मे वह्शाना तरीके से  काम करती एक किसान स्त्री..
बिना किसी राह्गीर अपनी छाया मे सुस्ताता एक घना आलसी  पेड..   
पतले मांस के वस्त्र पहना पोखर  मे भैँस के साथ नहाता
एक कंकालनुमा बच्चा..
नदी की सत्ता को पाटता एक  अहंकारी पुल..
बहाव की   प्रतीक्षा मे पुल के नीचे थम चुकी  एक सूखी  बेवा नदी..
अपनी अपनी ज़िंदगी की गठरी समेटे 
निरूद्देश्य भागते सब दृष्य ...

सामने की सीट पर 
मोहब्बत की पटकी खाने को बिलकुल तैयार बैठी  
किताब के हर्फों से  अपने ख्वाब  बीनती  एक लड़की..
म्युजिक के इयरफोन कानो मे ठूंस भविष्य की  ताल पर टिकी असुरक्षा को अनसुना करता
लगातार पैर हिलाता एक बेपरवाह लडका .. 
९ नग  पुनह पुनह गिनती रखती और अपनी दृष्टि से सबके चरित्रों को तौलती एक मारवाड़ी औरत ..
अपनी अचीन्ही जिन्दगी परान्ठे  मे लपेट अचार के साथ सटकता  एक बाबुनुमा अधेड़ आदमी..
इन सब बेनामी चेहरो और ध्वनियों  के अस्तित्व को नकारती ट्रेन की चीखती आवाज़..
और खामोशी मे डूबी  मैं....

कट ही जाता यह सफर इतनी अजनबी ज़िंदगी मे
अगर  
ऐसे में
आत्महत्या कर चुके अतीत से छिटका हुआ एक जिंदा लम्हा
मेरी झोली में न गिरता
और मेरे कान मे न  कह्ता कि मै अकेली नही हूँ...

उस एक लम्हे की ऊँगली थामे
मैं चल पड़ी हूँ 
आग  कि लप्टो  वाली  सुर्ख पाखण्डी गलियो में 
जहाँ
कयामत के बाद भी अन्गारो मे आंच बची थी

गाडी एक गुमशुदा स्टेशन पर रुकी है
समय की धक्कामुक्की को ठेलते और मृतभक्षी घृणा के पक्षियों को सुदूर आसमान में उड़ाकर
अपने पूरे वजूद के साथ्
आ बैठे   हो तुम मेरे पहलू में
और मै मुस्कुरा कर
ले चली हूँ तुम्हे  अपने साथ अपनी यात्रा पर
बिना टिकट !

-लीना मल्होत्रा
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Tuesday 14 June 2011

लड़कियां

लड़कियां जवान होते ही

खुलने लगती हैं
खिडकियों की तरह
बाँट की जाती है हिस्सों में
आँखें, मन, ज़ुबाने , देहें , आत्माएं!

इनकी देहें
बहियों सी घूमती हैं घर
दर्ज करती
दवा, दूध,
बजट और बिस्तर का हिसाबI

इनकी आत्माएं
तहाकर रख दी जाती हैं
संदूकों में
उत्सव पर पहनाने वाले कपड़ों की तरहI

इनके मन
ऊंचे ऊंचे पर्वत,
जिस पर
बैठा रहता है,
कोई धुन्धलाया हुआ पुरुष
तीखे रंगों वाला झंडा लिएI

इनकी आँखें
बहुत जल्द
कर लेती हैं दृश्यों से समझौता,
देखती हैं
बस उतना
जितना
देखने की इन्हें इजाज़त होतीI
पूरी हिफाज़त से रखती हैं
वो सपने
जिनमे दिखने वाले चेहरे
इनकी कोख से जन्मे बच्चों से बिलकुल नहीं मिलतेI

इनकी ज़ुबाने
सीख लेती हैं -
मौन की भाषा,
कुल की मर्यादा ,
ख़ुशी में रो देने
और
गम में मुस्कराने की भाषा,
नहीं पुकारती ये -
वो लफ्ज़,
वो शब्द,
वो नाम
जिनके मायने उन रिश्तों से जुड़ते हैं
जो इनके कोई नहीं लगते

इनकी तकदीरें
नहीं चुनती रास्ते,
चल पड़ती हैं दूसरों के चुने रास्तों पर,
बुन लेती हैं रिश्ते
चुने हुए रास्तो की छाया से,
कुएं से,
दूसरों के चुने हुए ठीयों से ,
इनकी तकदीरे मान जाती हैं-
नहीं ढूदेंगी
उन मंजिलों को
जो इनकी अपनी थी I
और
जिन्हें ये उन रास्तों पर छोड़ आई है
जो
इनकी नियति के नहीं स्वीकृति के रास्ते थेI

इनकी जिंदगियां -
खर्च करती हैं दिन, घंटे और साल
दूसरों के लिए,
बचा लेती हैं,
बस कुछ पल अपने लिएI
इन्हीं कुछ पलों में
खुलती हैं खिडकियों सी
हवा धूप, रौशनी के लिएI
और टांग दी जाती हैं
घर के बाहर नेम प्लेट बनाकरI

इनके वजूद निर्माण करते हैं
आधी दुनिया का
ये -
बनाती हैं
भाई को भाई ,
पिता को पिता,
और
पति को पति,
और रह जाती है सिर्फ देहें , आत्माएं, जुबानें, और आँखे बनकरI
ये
जलती हैं अंगीठियों सी,
और तनी रहती है
गाढे धुयें की तरह
दोनों घरों के बीच मुस्कुरा कर I
इनके वजूद
होते हैं
वो सवाल
जिनके जवाब उस आधी दुनिया के पास नहीं होते I

ये -
तमाम उम्र समझौते करती हैं
पर मौत से मनवा के छोडती हैं अपनी शर्ते
ये अपने सपने, मंजिलें, रिश्ते
सब साथ लेकर चलती हैं
इनकी कब्र में दफ़न रहते हैं
वो सपने,
वो नाम
वो मंजिलें
जिन्हें इनकी आँखों ने देखा नहीं
जुबां ने पुकारा नहीं
देह ने मह्सूसा नहीं
ये अपने पूरे वजूद के साथ मरती हैं !
-लीना  मल्होत्रा 

Saturday 11 June 2011

यू पी एस सी के बस स्टॉप पर बैठी एक लड़की

यू पी एस सी के बस स्टॉप पर बैठी एक लड़की 
मानो जड़ हो गई है
कोई बस नहीं पकड़ी उसने पिछले तीन घंटे से
या  तीन शताब्दियों से 
पढने की कोई कोशिश भी नहीं की किसी बस का नम्बर
बस सोचे चली जा रही है
अनंत विस्तार वाली किसी सड़क पर निकल गई है उसकी चेतना
अफ्रीका के घने जंगलों में शायद खो गई हैं उसकी स्मृतियाँ
कितने ही लोगों की जलती निगाहे उसकी ग्लेशियर बनी दृष्टि से टकरा कर वाष्पीकृत हो गई हैं  

हर कोई बस में चढ़ने से पहले पूछना चाहता है उससे 
माजरा क्या है
क्यों बैठी हो ऐसे
क्या किसी परीक्षा का परिणाम आ गया है
डर रही हो घर जाने से
पर नहीं 
इस  उम्र  में  असफलताएं  नहीं बदलती किसी को बुत में.   
तो क्या वह  प्रतीक्षा कर रही है किसी की
क्योंकि एक सन्नाटा उसकी पेशानी पर बैठा हांफ रहा है  
या विदा कह दिया है किसी ने उसको या उसने किसी को
क्योंकि उसकी  आँखों के  भूगोल  में  पैबस्त है एक उम्मीद
किसी के लौट आने की
या किसी तक लौट जाने की
उसके हाथ में पकड़ा एक खामोश मोबाइल
उसमे शायद किसी का संदेस है जिसने उसके लम्हों को सदियों में बदल दिया है.
क्योंकि उसकी उँगलियों में बची है अभी तक ऊर्जा
जो धीमे धीमे सहला रही है मोबाइल की स्क्रीन  को
मानो उस दो इंच क्षेत्रफल  में ही वह भूल भुलैय्या दफ़न है
जिसमे कोई खो गया है
और साथ ही वह भी खो गई है उसे ढूंढते हुए...

क्या सोच रही है वह
कोई नहीं जानता 
उसकी सोच किले की दीवारों की तरह आकाश तक पसरी है  
वह है कि सोचे चली जा रही है

बिना मुस्कुराये 
बिना रोये
बेखबर   
बस सोचे ही चली जा रही है
-लीना मल्होत्रा 

Tuesday 7 June 2011

आफ्रा तुम्हे शर्म नहीं आती तुम अकेली रहती हो.


आफ्रा को  खींच  लाने  के  सड़क  के  सारे  प्रलोभन  जब  समाप्त  हो  गए 
तो  वह सड़क जो आहटो के लिए एक कान में तब्दील हो चुकी थी
अचानक उठकर आफ्रा  की  देहरी पर आ गई है
और द्वार पर दस्तक   दे कर पूछती है
क्या तुम्हे किसी की प्रतीक्षा है
नहीं
क्या तुम कहीं  जाना चाहती हो
नहीं
क्या कोई आने वाला है
नहीं

आफ्रा  कहती है  नहीं
और वह  आँखें  बन  कर चिपक  जाती  है उसके  घर की दीवारों पर 
उन  पर्दों  के  बीच लटक जाती है उसकी पगडंडियाँ 
जो आफ्रा की   दुनिया  को  दो  भागों  में  विभाजित  करते  थे.
उसकी हैरान दृष्टि भेदती  है  
आफ्रा के  विचारो  के कहीं  ध्वस्त तो कही मस्त  गाँव को 
उसके  अवशेषों में ढूंढती है कहानियां और मस्ती में अश्लीलता   
एक श्रृंखला में  पिरोये   हुए   अलग  अलग  सालों  से  टूट  कर  गिरे  कुछ प्रचंड,
 कुछ ख़ामोश  लम्हे 
वह बटन  जो  सूरज    को  बुझा  देता  है उसकी   मर्ज़ी  से
और  वह अँधेरा जिसे वह   घर की सब बाल्टियो भगौनो और कटोरियों में इकठा करके रखती है 
आगन्तुक के आने पर सबके छिपने की जगह नीयत है
लेकिन कोई नहीं भागता
और ढीठपने के साथ  देखते है सड़क को घर का सामान बनते हुए.
सब कुछ अचानक निर्वस्त्र हो गया है.
और  
आफ्रा  सोचती है   इन  खौलती  आँखों  से   परे  अपनी  निष्ठां  को  कहाँ  छिपाये 

एक प्रतिक्रिया विहीन दाल और रोटी वह  अपने इस अनचाहे अतिथि को परोसती है 
तभी सड़क उससे पूछती है
तुम क्यों जीती हो
आफ्रा  अचकचाकर कहती है 
सब जीते है क्योंकि जीना पड़ता है
तुम गीत क्यों गाती हो
मुझे अच्छा लगता है
तुम्हे पता है तुम्हारे गुनगुनाने की आवाज़ बाहर तक सुनाई पड़ती है
आफ्रा चुप
और तुम लड़की हो
अँधेरे मापती और अकेले गीत गाती लड़की कोई पसंद नहीं करता
कपडे देखे है तुमने अपने 


जानती हो लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते है कि तुम. ..

इससे पहले कि वह बात पूरी करे आफ्रा फट पड़ती है
बताती है  उसे कि क्या कहते हैं लोग सड़क के  बारे में ..

कि सड़क!  तुम निम्फ हो और लाखों राहगीर गुज़रे है तुम्हारी राहों से 
फिर भी तुम्हे न जाने कितने मुसाफिरों का इंतज़ार है.
क्या तुम थोड़ी और दाल लोगी ?
और आफ्रा  कटोरी से अँधेरा उलट कर दाल
और ग्लास  में भरी मस्ती बहा कर जल प्रस्तुत  करती है 
और तुम्हारी तो कोई मंजिल भी नहीं है तो फिर क्यों बिछी रहती हो सड़क 
किसके इंतज़ार में ?
वो कमबख्त ढीठ लम्हे जो तिल तिल जलने के  आदी हो चुके है ठठा कर हँसते हैं
और आफ्रा को  मुबारकबाद देते है 
अकेले शहर में रहने वाली लड़की की भाषा को सीखने का जश्न मनाते हैं
सड़क भी आमंत्रित है 
लेकिन  सड़क  लौट जाती है लगभग भागते हुए!
और रद्दी की टोकरी आफ्रा  पहली बार 
देहरी के बाहर रख देती है 
जिसमे ढेरो चरित्र के सर्टिफिकेट है जो उड़ कर आ गए थे उसी सड़क के रास्ते 
और जिनका मूल्य है मात्र ५ रूपये किलो.
-लीना मल्होत्रा